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जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा
के आधार पर ही अपने आहार का चयन करता है। हिंसक विचारधारा वाला व्यक्ति, अभक्ष्य शराब, मांस आदि को पसन्द करता है, तथा अहिंसक विचारधारा वाला व्यक्ति समुचित अहिंसक भोजन को ही पसन्द करेगा।
इसी कारण श्रमणाचार विषयक सम्पूर्ण साहित्य में आहारचर्या के विषय में सर्वांगीण चिन्तन देखने को मिलता है, और उसके प्रतिपादन का मूल उद्देश्य आहार विवेक की
सूक्ष्मता को विश्लेषित करना होता है। श्रमण के मूलगुण और उत्तरगुणों के बीच भिक्षा-चर्या को मूल-योग कहा गया है।103 यह आहार विवेक समग्र साधना का एक प्रधान अंग है, जिसकी उपेक्षा करके साधना के क्षेत्र में निरतिचारतः आगे नहीं बढ़ सकता है। इसी कारण आहार ग्रहण की निरतिचारतः आगे महत्ता को प्रतिष्ठित करने के लिए आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण में कहा कि भगवान श्री ऋषभदेव ने यतिचर्या अर्थात् आहार ग्रहण विधि का ज्ञान समस्त जनता को कराने के लिए और अपने शरीर की स्थिति के लिए निर्दोष आहार की गवेषणा करने की बुद्धि हुयी। ऋषभदेव ने अपने सहदीक्षित श्रमणों के सम्बन्ध में सोचा कि, ये चार हजार राजा लोग केवल एक आहार के बिना चारित्र मार्ग से भ्रष्ट हो गये, क्योंकि इनको यतिचर्या का ज्ञान नहीं थाः उसके बिना क्षुधा के दुस्सह परीषह को जीतने में असमर्थ होकर मार्ग से भ्रष्ट हो गये। अतः काय की स्थिति के लिए आहार ग्रहण की चर्या प्रकाशित होनी चाहिए एवं संयम पथ को पूर्ण करने के लिए शिष्यों को शरीर की स्थिति बनाये रखना चाहिए। ऐसा निश्चय कर ऋषभदेव ने योग समाप्त कर चर्या के लिए विहार किया। प्राणों की रक्षा या नियमित धारणा के लिए आहार ग्रहण करना ही चाहिए। इस प्रकार ऋषभदेव ने विधि मार्ग बतलाया।
आचार-विषयक ग्रन्थ के आदि-प्रणेता आचार्य वट्टकेर ने अपने मूलाचार ग्रन्थ के "पिण्डशुद्धि" नाम छठवें अधिकार में आहार चर्या का स्पष्ट स्वतन्त्र एवं सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया है। और साथ ही प्रसंगानुसार यत्र-तत्र आहार-शुद्धि का समुचित प्रतिपादन एवं आहार विवेक के विषय में सतत सजग बने रहने को भी कहा है। कारण कि, जो श्रमण मनमाने स्थान पर शुद्धाशुद्ध के विवेक से रहित, चाहे जैसा उपलब्ध आहार तथा उपधि आदि को शोधन किये बिना ग्रहण कर लेता है, वह श्रामण्य से रहित संसार को बढ़ाने वाला है।104 चिरकाल से दीक्षित श्रमण भी यदि आहार शुद्धि का ध्यान नहीं रखता। तब उस तप, संयम और चारित्रहीन श्रमण की आवश्यक क्रियाएं भी कैसे शुद्ध रह सकती हैं 2105 ऐसा श्रमण तो लोक में मूल स्थान ( गृहस्थभाव) को प्राप्त श्रामण्यतुच्छ कहलाता है।106 __आहार के लिए "पिण्ड" शब्द का तथा आहारशुद्धि के लिए "पिण्डशुद्धि" का प्रयोग अधिकांशतः जैन साहित्य में देखने को मिलता है। पिण्ड शब्द "पिडि संघाते" धातु से बना है। सामान्य अन्वर्थ की दृष्टि से सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं के योग को पिण्ड कहते हैं। किन्तु श्रमणाचार के प्रसंग में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकार के