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संघ और सम्प्रदाय
का आशय है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली ने श्रुतज्ञान का ही अंश अष्टांग निमित्तता के ज्ञान को ही उपयोग में लाकर तत्वज्ञेन अर्थात् शुभाशुभ के विवेक से त्रिकालदर्शिता के द्वारा 12 वर्ष का अकाल जानकर दक्षिण गये ।
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इसके अतिरिक्त भी उपर्युक्त उद्धृत सभी सशक्त शिलालेखीय प्रमाण पूर्णतः सन्तुष्ट करते हैं कि श्रुतकेवली भद्रबाहु एवं दीक्षित सम्राट चन्द्रगुप्त जिनका कि दीक्षा नाम प्रभाचन्द्र था - के साथ दक्षिण गये थे और वहाँ अपना अन्तिम समय जानकार कटवप्र नामक पहाड़ी पर सन्यास मरण किया था ।
इन शिलालेखीय प्रमाणों के अतिरिक्त भी शास्त्रीय आधार हैं कि जिनमें उक्त मन्तव्यों की ही पुष्टि होती है । हरिषेणकृत (संवत् 931 ) वृहत्कथाकोष में भी उपर्युक्त मन्तव्य मिलते हैं। रत्ननन्द्याचार्य कृत भद्रबाहु चरित्र, देवचन्द्र कृत कर्नाटक भाषा में लिखी राजवली कथा में भी ऐसे ही उल्लेख हैं। मि. वी. लुईस राइस भी अपने "एप्रिग्राफिका कर्नाटिका" में उपर्युक्त मन्तव्यों की पुष्टि ही करते हैं । अतः सर्वांश का पर्यालोचन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त समकालीन एवं गुरुशिष्य थे। उनके पूर्व सम्प्रदाय - विभाजन नहीं था, तथा उज्जयिनी की अकाल घटना ही सम्प्रदाय भेद का प्रमुख कारण बनी ।
उज्जयिनी की इस अकाल घटना के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के विषय में जो कथानक मिलते हैं वे इस प्रकार हैं
हरिषेण कृत वृहत्कथा कोश के अनुसार जब भद्रबाहु के संघ ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और भद्रबाहु ने समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग कर दिया। तब इधर उज्जैन में श्रावकों के अति अनुरोध से स्थूलभद्राचार्य के नेतृत्व में रह रहे साधु वर्ग अति दुर्भिक्षता के कारण रात्रि में भोजन करने लगे थे, क्योंकि श्रावक भी अति संकट के कारण रात में ही भोजन बनाते थे। दिन में क्षुधा पीड़ितों के आक्रमण करने के भय से भोजनादि न बनाते हुए दरवाजे बन्द किये रहते थे, जिससे श्रमणों को भी आहार अनुपलब्ध रहता था । अतः श्रावकों के अनुरोध से श्रमणों ने रात्रि भोजन प्रारम्भ किया था, शायद इसी कारण कुछ ग्रन्थकारों ने पंचमहाव्रतों के अतिरिक्त "रात्रिभोजनविरति" को भी महाव्रतों में अणुव्रत के रूप में शामिल कर जोर डालना प्रारम्भ किया हो, क्योंकि कुछ अभ्यासवश शिथिलाचारी श्रमण कालान्तर में भी इस घटना को उद्धृत कर रात्रि भोजन करने लगे हों, अतः समय-समय पर रात्रि भोजन विरति पर भी पृथक् से जोर डालने की आवश्यकता महसूस हुयी हो, जबकि इस व्रत का अन्तर्भाव अहिंसा महाव्रत में ही हो जाता है। इस पर विशेष विवेचन " आहार चर्या" में करेंगे। उधर जब उज्जैन में श्रमण रात्रि में भोजन करने लगे, तो एक बार अन्धकार में भिक्षा की खोज में निकले निर्ग्रन्थ श्रमण को देखकर भय से एक