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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
धर्म के स्वरूप प्रसंग में; जैसा कि लिखा गया कि धर्म कभी भी प्रभावित नहीं होता जबकि धर्म और धर्मात्माओं से तो देश-काल प्रभावित होता है। जैसा कि राम, महावीर आदि धर्मात्माओं से देश-काल प्रभावित हुआ था। इस बीसवीं शताब्दी में भी गांधी जी की अहिंसक प्रवृत्ति से पाश्चात्यवासी प्रभावित हुए, और उनको भारत मुक्त करना पड़ा। चाहे कोई कितना भी कहे पर मैं तो यह दृढतापूर्वक कहूँगा कि धर्म और धर्मात्मा पुरुष कभी भी देशकाल की मर्यादा में नहीं रहता, अपितु देशकाल की उच्छृंखल वृत्तियां धर्मात्माओं के जीवन से प्रभावित होती हैं। देश-काल कभी भी एक से नहीं रहते, परिस्थितियाँ एवं प्रवृत्तियाँ कभी भी एक सी नहीं रहती हैं। जैसे यह एक ध्रुव नियम है उसी तरह धर्म सदैव एक सा एवं अप्रभावित रहता है यह भी नियम है। यदि धर्म का स्वरूप भी परिवर्तनशील हो तो एक आदर्श कल्पना की व्यवस्था कैसे संभावित होगी। नियमों में बदलाव आंशिक सत्यता का ही द्योतक होता है। धर्म कभी आंशिक सत्य नहीं होता है। धर्म सर्वांश एवं सर्वकालिक सत्य है । अतः उसमें बदलाव की कल्पना भी बालचेष्टा मात्र है।
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श्रमण धर्म मोक्षमार्ग का साक्षात् धर्म है । अतः धर्म भी त्रिकाल एक सा ही होना चाहिए और किसी प्रकार की परिस्थितियों में भी उसे अप्रभावित रहना चाहिए। तभी वह श्रम अर्थात् उद्योगियों अर्थात् वीरों का धर्म कहा जा सकेगा । वस्तुतः श्रमण धर्म भी ऐसा ही है। उसका मूल स्वरूप त्रिकाल एक ही रहता है । उसमें किंचित् मात्र भी बदलाव संभव नहीं, ऐसा नहीं कि श्रावकों शिथिलता या भ्रष्टता प्रवेश होने पर श्रमणों में भी ऐसा होना स्वीकृत होवे | जैनधर्म के अनुसार प्रतिपादित भूमिका का ज्ञान होना अत्यावश्यक है, तब ही इस भ्रमण स्वरूप को सरलता से समझा जा सकता है। जिस भूमि पर रहना है उसके अनुरूप भी रहो। भूमि के विरुद्ध रहना यह एक द्रोह है फिर चाहे वह देशद्रोह के रूप में ही या धर्मद्रोह के रूप में। इसे "भूमिका विद्रोही" की संज्ञा दी जाती है । उत्कृष्टतर पवित्रता ही श्रामण्य की भूमिका है। भ्रमण पवित्रता के प्रतीक हैं। भ्रमण वह पवित्र स्वच्छ दर्पण हैं कि, जिनको देखकर अपने मुख की अपवित्रता दिखती है, और उसको दूर करने की प्रेरणा मिलती है। मुख चाहे थोड़ा गन्दा हो अथवा बहुत ज्यादा, परन्तु इन दोनों प्रकार के मुखों को देखने के लिए एक ही प्रकार के अत्यन्त स्वच्छ निर्दोष दर्पण की आवश्यकता होती है । दर्पण की स्वच्छता निरपेक्ष होती है, उस दर्पण को कभी यह शिकायत नहीं होती कि देखन वालों का मुख कैसा ? दर्पण का स्वरूप ही ऐसा है कि वह अपने स्वरूप को स्वच्छ रखे । एक अच्छे स्वच्छ दर्पण में ही एक मलिन मुख दिखता है। मलिनता के तो भेद होते ही हैं, परन्तु स्वच्छ दर्पण में कोई भेद नहीं होता है। वे सभी दर्पण एक से ही होते हैं । इसी प्रकार श्रमण एक स्वच्छ, निष्कलंक, निर्दोष आदर्शरूप दर्पण हैं। मलिन श्रावक अपनी मलिनता श्रमण की आदर्श चर्या के परिप्रेक्ष्य में ही देखता है, और अपनी मलिनता को दूर करने का प्रयत्न करता है । अतः यह कथन कि "जैसे श्रावक वैसे श्रमण " नितान्त असंगत एवं भ्रामक है, क्योंकि इसमें यह प्रश्न सहजतः होगा कि किस श्रावक के आधार पर श्रमण का स्वरूप निर्धारित हो ।