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पिच्छि- कमण्डलु
में दीक्षा लेते ही मनः पर्यय ज्ञान एवं अप्रमत्त गुणस्थान तीर्थंकर के कहा है । तब पिच्छिकमण्डलु का ग्रहण सम्भव नहीं है। 162 जयसेन कृत प्रतिष्ठापाठ में कहा है कि कमण्डलुपिच्छि का ग्रहण तीर्थंकर के नहीं होता, क्योंकि उनके शौच क्रिया और जीव हिंसा का अभाव है। कमण्डलु पिच्छि का प्रयोग तो सामान्य साधु के लिए उपयोगी है, क्योंकि उनके शौच क्रिया और जीव हिंसा है। जिनसेन कृत आदि पुराण में भी दीक्षाकल्याणक में ऋषभदेव के कहीं भी पिच्छिं कमण्डलु ग्रहण नहीं बतलाया है। इसी प्रकार प्रतिष्ठाचार्य दुर्गाप्रसाद जी ने भी भगवान के दीक्षा समय पिच्छि - कमण्डलु का अभाव बतलाया है। श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों के पिच्छि- कमण्डलु का निषेध बतलाया है।
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिक में "पिच्छि" के उपर्युक्त प्रसंगों के साथ एक और प्रश्न उठाया है कि जब श्रमण पिच्छि रखते हैं तो उसका परिग्रह होने से मूर्च्छा माननी चाहिये ? क्योंकि उठाते हैं, रखते हैं, यह बिना मूर्च्छा के कैसे सम्भव है ? इसका समाधान देते हुए आचार्य विद्यानन्द महोदय कहते हैं कि, "इसीलिए परमनिर्ग्रन्थता हो जाने पर परिहार- विशुद्धि संयमवालों के पिच्छिका त्याग हो जाता है, जैसे सूक्ष्म- साम्पराय और यथाख्यात - संयम वालों के हो जाता है, किन्तु सामायिक और छंदोपस्थापना संयम वाले श्रमणों के संयम का उपकरण होने से प्रतिलेखन (पिच्छि) का ग्रहण सूक्ष्म मूर्च्छा के सद्भाव में भी युक्त ही है। द्वितीय, उसमें जैन मार्ग का विरोध नहीं है । तात्पर्य यह है कि जिन सामायिक और छेदोपस्थापना संयम वाले मुनियों के पिच्छि आदि का ग्रहण है; क्योंकि उनके सूक्ष्म मूच्छा का सद्भाव है, और शेष तीन संयम वाले मुनियों के पिच्छि आदि का त्याग हो जाने स उनके मूर्च्छा नहीं है। दूसरी बात यह है कि मुनि के लिए पिच्छि आदि का ग्रहण जैन मार्ग से अविरुद्ध है । अतः उसके ग्रहण में कोई दोष नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मुनि वस्त्र आदि का भी ग्रहण करने लगे; क्योंकि वस्त्र आदि नाग्न्य और संयम के उपकरण नहीं हैं; दूसरे, वे जैन मार्ग के विरोधी हैं, तीसरे, वे सभी के उपयोग के साधन हैं। इसके अलावा, केवल तीन-चार पिच्छ व केवल अलावूफल- तूमरी (कमण्डलु ) प्रायः मूल्य में नहीं मिलते हैं, जिससे उन्हें भी उपयोग का साधन कहा जाए । निःसन्देह यदि मूल्य देकर पिच्छादि का भी ग्रहण किया जाए तो वह आपत्तिजनक है, क्योंकि उसमें सिद्धान्त विरोध है 163 तात्पर्य है कि पिच्छादिक न तो मूल्यवान वस्तुएँ हैं, और न ही दूसरों के उपयोग की वस्तुएँ हीं, अतः मुनि के लिए उसके ग्रहण में मूर्च्छा नहीं है। लेकिन वस्त्रादि मूल्यवान वस्तुएँ अन्यों के भी उपभोग्य हैं, अतः उनके ग्रहण में ममत्वरूप मूर्च्छा होती है।
उपर्युक्त इन उद्धरणों से यह बात स्पष्ट होती है कि, अवधि ज्ञान के पूर्व तक पिच्छि की आवश्यकता होती है एवं सामायिक तथा छेदोपस्थापना चारित्र धारी के लिए पिच्छि अनिवार्य आवश्यकता है। यह चारित्र छठवें से नवे गुणस्थान तक होता है, परन्तु परिहारविशुद्धि चारित्र वालों का शरीर सूक्ष्म जीवों को बाधित नहीं करता है, अतः उनके पिच्छि