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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
विकार उत्पन्न नहीं होते, जिन्होंने क्रोध, मान, माया, और लोभ को जीत लिया है। जिनकी संज्ञाएं आहार-भय, मैथुन और परिग्रह रूप विकार को प्राप्त नहीं होती हैं। जिनके पाँच लेश्याएं कृष्ण, नील, कापोत आदि विकृत नहीं होती हैं। रस और स्पर्श इन "काम" से नित्य ही दूर रहते हैं। रूप, गन्ध और शब्द के भोग को भोगते नहीं हैं। जो आर्त और रौद्र ध्यान से दूर रहते हैं। धर्म और शुक्ल ध्यान को नित्य ध्याते हैं, ऐसे श्रमणों के जैन धर्म में सामायिक कही गयी है। ऐसी सामायिक का इतना माहात्म्य है कि सामायिक करते समय श्रावक भी श्रमण जैसा हो जाता है।18 जैसे पर्व के दिनों में काई श्रावक ( उदा. सुदर्शन सेठ आदि) सामायिक संयम ग्रहण कर श्मशान/एकान्त में स्थित हो गया है। उस समय किसी के द्वारा उस पर उपसर्ग हो और वह उपसर्ग सं विचलित न हो तो वह श्रमण सदृश ही है। यहाँ पर शंका है कि, यदि उस समय वह भाव श्रमण हो गया तब तो उसे श्रावक पद ही कैसे कहा जा सकता है ? समाधान -वह भाव श्रमण नहीं है, किन्तु श्रमण के सदृश समझना चाहिए, क्योंकि उस समय उसके प्रत्याख्यान कपाय का उदय मन्दतर है। यह सामायिक का माहात्म्य है।19
सामायिक का काल और विधि :
यद्यपि निश्चय सामायिक का कोई काल नहीं है, क्योंकि वे अन्तर्महुर्त में अनेकों बार अन्तर्मुख होकर सामायिक करते हैं, तथापि वे पूर्वाह्न मध्याह्न और अपराह्न इन तीनों कालों में छह-छह घडी ( 24 मिनट की एक घडी ) सामायिक करते है।20 यहाँ यह बात बहुत विचारणीय व ध्यान देने जैसी है कि जिस समय साधु के सामायिक का काल है वहीं समय तीर्थंकर की देशना का काल है, तो फिर समवशरण में विराज रहे मुनि वर्ग दिव्यध्वनि का श्रवण करेंगे या सामायिक करेंगे। यदि सामायिक नहीं करते तो मुनिधर्म नहीं पलता और यदि दिव्यध्वनि नहीं सुनते तो उसके प्रति अनादर प्रदर्शित होता है। इस प्रश्न का उत्तर इस तरह से दिया जा सकता है कि, दिव्य ध्वनि का सार भी आत्म रमणता है, अतः मुनि आत्मरमणता हेतु सामायिक ही करेंगे, जब स्वरूप से बाहर आयेंगे और किसी प्रकार की जिज्ञासा या प्रश्न का उत्तर जानने का अभिप्राय हो, तो तीर्थंकर देव की वाणी से समाधान प्राप्त कर फिर अपने मूल प्रयोजन सामायिक अवस्था को प्राप्त करेंगे। अतः जयधवलाकार ने तीनों ही सन्ध्याओं में, पक्ष, मास के सन्धि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाहय और अन्तरंग सभी कपायों का निरोध करके सामायिक करने का कहा है।21 मूलाचार ने सामायिक की विधि बतलाते हुए कहा कि "द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक अंजुलि को जोडकर स्वस्थ बुद्धि से (प्रसन्नमन) स्थित होकर अथवा एकाग्रमन होकर आकुलता रूप मन विकार से रहित आगमानुसार क्रम से सामायिक करनी चाहिए।22