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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते हैं उन्हें, जो निश्चयनय में स्थित साधु हैं वे वस्तुतः जितेन्द्रिय हैं। तथा जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा का ज्ञान स्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य स्वभावों से अधिक जानता है वह जितमोही निश्चय स्तुति करने वाला है। इस प्रकार आ. कुन्दकुन्द ने इन्द्रियों को जीतने वाला, जितमोही एवं क्षीण मोही के निश्चय स्तवन कहा है।33
समयसार कलश में आ. अमृतचन्द्र इन निश्चय व्यवहार स्तुति को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, "शरीर और आत्मा के व्यवहारनय से एकत्व है किन्तु निश्चयनय से नहीं है, अतः शरीर के स्तवन से आत्मा पुरुष का स्तवन व्यवहारनय34 से हुआ कहलाता है, निश्चयनय से नहीं, निश्चय से तो चैतन्य के स्तवन से ही चैतन्य का स्तवन होता है उस चैतन्य का स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह आदि रूप से कहा है।
उपर्युक्त प्रसंग में यह सिद्ध होता है कि श्रमण के यथार्थ षडावश्यक में "स्तवन" आवश्यक तो शुद्धात्मा का स्मरण ही है परन्तु साथ ही साथ जिन श्रमणों ने शुद्धात्मा का अनुभव कर सिद्ध हुए हैं उनका भी नाम, द्रव्य क्षेत्र, आदि का स्मरण आए बिना नहीं रहता, बस यही व्यवहार स्तवन है।
वंदना:
· अर्हन्त, सिद्ध आदि या चौबीस तीर्थंकरों में से किसी भी पूजनीय आत्मा का विशुद्ध परिणामों से नमस्कार, स्तुति, आर्शीवाद-जयवाद आदि रूप विनय कर्म को वन्दना कहते हैं यहाँ पर स्तवन व वंदना में भेद समझना आवश्यक है। स्तवन नामक आवश्यक में तो सभी चौबीस तीर्थंकर भी सामूहिक रूप से स्तुति करने का विकल्प है परन्तु वन्दना आवश्यक में किसी एक तीर्थंकर विशेष के पूज्यत्व रूप विकल्प का सद्भाव है। इसीलिए जयधवलाकार कहते हैं कि "एयरस्स तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा णाम"36 अर्थात् एक तीर्थंकर को नमस्कार स्प विकल्प को वंदना कहते हैं। और इस देव गुरुवन्दना से जीव नीचगोत्र कर्म का क्षय करके उच्च गोत्र कर्म का बन्ध करता है, और अप्रतिहत सौभाग्यवाला तथा सफल आज्ञावाला होता हुआ सर्वत्र आदर प्राप्त करता है। मूलाचार में वन्दना के नामान्तर निम्नतः हैं: "किदियम्म चिदियम्म पृयाकम्मं च विणयकम्मं च38 अर्थात जिस अक्षर समह से या परिणाम से या क्रिया से आठों कर्मों का कर्तन या छेदन होता है उसे कृति कर्म कहते हैं अर्थात् पाप के विनाश का नाम कृति कर्म है। जिससे तीर्थंकर आदि पुण्यकर्म का संचय होता है उसे चिति कर्म अर्थात् पुण्य संचय का कारण कहते हैं। जिससे अर्हन्त आदि की पूजा की जाती है उसे पूजा कर्म कहते हैं। जिससे कर्मा का संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि होकर निराकरण किया जाता है उसे विनयकर्म कहते हैं। ये सब वन्दना के नामान्तर हैं। आ. अमितगति ने भी कहा है-कर्म रूपी जंगल को जलाने के लिए अग्नि के समान पाँच परमेष्ठियों का मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक