Book Title: Jain Shraman Swarup Aur Samiksha
Author(s): Yogeshchandra Jain
Publisher: Mukti Prakashan

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Page 192
________________ षडावश्यक / प्रतिक्रमण 1. अयोग्य नामों का उच्चारण न करना यह नाम प्रतिक्रमण है । 2. आप्ताभासों की प्रतिमा के आगे खडे होकर हाथ जोडना, मस्तक नवाना, द्रव्य से पूजा करना इस प्रकार के स्थापना का त्याग करना, अथवा त्रस, अथवा स्थावर जीवों की स्थापनाओं का नाश करना, मर्दन या ताड़न आदि का त्याग करना स्थापना प्रतिक्रमण है। 191 3. उद्गमादि दोष युक्त वसतिका, उपकरण व आहार का त्याग करना, अयोग्य अभिलाषा, उन्मत्तता तथा संक्लेश परिणाम को बढाने वाले आहारादि का त्याग करना, यह सब द्रव्य प्रतिक्रमण है । 4. पानी, कीचड़, त्रस जीव, स्थावर से व्याप्त प्रदेश, तथा रत्नत्रय की हानि जहाँ हो ऐसे प्रदेशों का त्याग करना क्षेत्र प्रतिक्रमण है । 5. रात्रि, तीनों संध्याओं में, स्वाध्याय काल, आवश्यक क्रिया के कालों में आने-जाने का त्याग करना यह काल प्रतिक्रमण है। 6. आर्त - रौद्र इत्यादिक अशुभ परिणाम व पुण्यासव के कारणभूत अशुभ परिणाम का त्याग करना भाव प्रतिक्रमण है। 70 इस प्रकार किये हुए अतिचारों का मन से त्याग करना मनः प्रतिक्रमण, वचनों के द्वारा सूत्रों का उच्चारण वाक्य प्रतिक्रमण तथा शरीर के द्वारा दुष्कृत्यों का आचरण न करना यह प्रतिक्रमण है। 71 समयसार ता.वृ. टीका में अप्रतिक्रमण को बतलाते हुए कहा है कि अप्रतिक्रमण ढो प्रकार का होता है- ज्ञानी जनों के आश्रित व अज्ञानी जनों के आश्रित । अज्ञानी जनों के आश्रित जो अप्रतिक्रमण है वह, विषय-कषाय की परिणति रूप अर्थात् हेयोपादेय के विवेक शून्य सर्वथा अत्याग रूप अनर्गल प्रवृत्ति है । परन्तु ज्ञानी जीवों के आश्रित जो अप्रतिक्रमण है वह शुद्धात्मा के सम्याश्रद्धान ज्ञान व आचरण लक्षण वाले अभेद रत्नत्रयं रूप या त्रिगुप्ति रूप है। 72 पूर्वानुभूत विषयों का अनुभव व रागादि रूप अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है- द्रव्य व भाव अप्रतिक्रमण 173 अतीत काल में जिन परद्रव्यों का ग्रहण किया था उन्हें वर्तमान में अच्छा समझना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, वह द्रव्य अप्रतिक्रमण है और उन परद्रव्यों के निमित्त से जो रागादि भाव हुए थे, उन्हें वर्तमान में अच्छा जानना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, भाव अप्रतिक्रमण है। 74

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