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जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा
___ प्रतिक्रमण शिष्यगणों के लिए आलोचनापूर्वक कहा है और गुरु के लिए आलोचना के बिना ही होता है। क्योंकि गुरु स्वयं किसी अन्य से आलोचना नहीं करता है। परन्तु शिष्यगण विनयकर्म करके,शरीर व आसनं को पिच्छि व नेत्र से शुद्ध करके, अंजलि क्रिया में शुद्ध हुआ निर्मल प्रवृत्ति वाला साधु श्रृद्धि आदि गौरव और जाति आदि के मान को छोड़कर गुरु से अपने अपराधों का निवेदन करके प्रतिक्रमण करें। प्रतिक्रमण की विधि
व्रतों के अतिचारों को दूर करने का उपाय प्रतिक्रमण ही है। तथा आत्मालोचन पूर्वक किया गया प्रतिक्रमण, प्रतिक्रमण कहलाता है। अतः इसकी विधि का ज्ञान होना भी परमावश्यक है। आचार्य वट्टकेर ने इसकी विधि निम्न प्रकार बतलायी है-सर्वप्रथम विनय कर्म करके, शरीर, आसन आदि का पिच्छिका से प्रमार्जन व आँखों से भलीभांति देखकर शुद्धि करे। इसके बाद हाथ जोड़ कर श्रृद्धि आदि गौरव तथा जाति आदि सभी तरह के मान छोडकर व्रतों में हुए अतिचारों को गुरु के समक्ष निवेदन करना चाहिए। आचार्य के समक्ष अपराधों का निवेदन नित्यप्रति करना चाहिए, तथा इसमें काल क्षेत्र नहीं होना चाहिए। अल्प अपराध के समय यदि गुरु समीप न हो तब वैसी दशा में-"मैं फिर ऐसा कभी न करूँगा, मेरा पाप मिथ्या हो" इस प्रकार प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। आलोचना भक्ति करते समय कायोत्सर्ग प्रतिक्रमण भक्ति करने में कायोत्सर्ग, वीरभक्ति में कायोत्सर्ग,
और चतुर्विशति तीर्थंकर भक्ति में कायोत्सर्ग-प्रतिक्रमणकाल में ये चार कृतिकर्म करने का विधान है।
मध्यम तीर्थंकरों के शासन के जीव दृढ़ बुद्धिवाले स्मरण शक्ति से सहित, एकाग्रचित्त वाले होते हैं, किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन के शिष्य चंचल मन वाले, मोह से सहित, ऋजु जड़मति वाले और वक्र जड़मति वाले होते हैं। यही कारण है कि आज सभी प्रतिक्रमण करना आवश्यक ही हैं। यहाँ प्रतिक्रमण का विवेचन मध्यम परिमाण में है विस्तार से मूलाचार आदि में वर्णित है।
प्रत्याख्यान:
आगामी काल में दोप न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है अथवा सीमित अवधि के लिए आहारादिक का त्याग करना प्रत्याख्यान है। त्याग प्रारम्भ करते समय प्रत्याख्यान . की प्रतिष्ठापना और अवधि पूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है। "प्रत्याख्यानादि के ग्रहण बिना यदि कदाचित् पूर्वबद्ध आयुकर्म के वश से आयु क्षीण हो जाए, तो वह साधु विराधक समझा जाता है। किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होने पर थोड़ी देर के लिए और थोड़ा सा ग्रहण किया हुआ प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डाल की तरह महान् फल देने वाला होता है।80