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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
आचार्य वट्टकेर ने साधु को कृतिकर्म करने के लिए उससे सम्बन्धित नौ तरह से विचार करने का निर्देश दिया है।47 (1)कृतिकर्म कौन करे ? अर्थात् कृतिकर्म के स्वामित्व की अपेक्षा विचार करना चाहिए। (2) किसका करे ? (3) किस विधि से करे ? ( 4 ) किस अवस्था में करे ? (5) कितनी बार करे ? (6) कितनी अवनतियों से करे ? (7) कितनी बार मस्तक पर हाथ रखकर करे ? (8) कितने आवर्गों से शुद्ध होता है। (9) कितने दोषों रहित कृतिकर्म करे।
1. कृतिकर्म का स्वामी
कृतिकर्म अर्थात् वंदन कर्ता का स्वरूप, जो पाँच महाव्रतों के अनुष्ठान में तत्पर हो, धर्म और धर्म के फल में जिनका शरीरहर्ष से रोमांचित हो रहा हो, आलस्य रहित हो, मान-कषाय से रहित हो, कर्म निर्जरा के इच्छुक हो, ऐसे मुनि दीक्षा में एक रात्रि भी यदि लघु है, तो वे सर्वकाल, आचार्य, प्रवर्तक, उपाध्याय तथा रत्नत्रय के विशेष रूप से आराधकों की मान रहित होकर यथायोग्य वंदना करते हैं।48
2. कृतिकर्म का विषय - कृतिकर्म का विषय क्या है ? अर्थात् वंदना के योग्य कौन नहीं है ? और कौन है ? इस पर विचारते हुए कहा कि उद्यमी रत्नत्रयधारी साधु असंयत माता-पिता की, असंयत गुरू की, दीक्षा गुरु यदि चरित्र में शिथिल हों, या श्रुतगुरु असंयत हैं अथवा चारित्र में शिथिल हैं, तो उनकी वन्दना न करें, अर्थात् श्रमण का शिक्षा गुरु-भ्रष्ट हो या फिर असंयत गृहस्थ हो जैसे कि पं. आशाधर जी श्रमणों को पढाते थे तो ऐसी दशा में श्रमण के लिए अवंदनीक ही हैं। इसी प्रकार राजा, पाखंडी, शास्त्रादि से प्रौढ देशव्रती श्रावक इन्द्रादिकदेव भी अवन्दनीक ही हैं। तथा पार्श्वस्थ आदि श्रमण निन्थ होते हए भी दर्शन ज्ञान चारित्र में शिथिल हैं। अतः अवन्दनीक हैं। ऐसे शिथिलाचारी भ्रष्ट श्रमण, रत्नत्रयधारी श्रमणों के द्वारा अवंदनीक तो है ही, साथ ही वे यथोक्त अनुष्ठान करते हुए श्रावक के द्वारा भी अवंदनीक हैं।
आचार्य अपराजित सूरि ने दो प्रकार के अभ्युत्थान और प्रयोग विनय के भेद से वंदना कही है। अभ्युत्थान का स्वरूप बतलाया है कि "विनय से मान कषाय का विनाश होता है। गुरुजनों में बहुमान, तीर्थकरों की आज्ञा का पालन, श्रुत में कहे गये धर्म की आराधना, परिणाम विशुद्धि, आर्जव और सन्तोष रूप फल की अपेक्षा करके विनय की जाती है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि की वन्दना (कृतिकर्म) अपने कर्मों की निर्जरा के लिए करना चाहिए।49