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घडावश्यक/वंदना
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3. कृतिकर्म की विधि
कृतिकर्म की विधि व उसके योग्य मुद्रा पर भी विचार किया। कृतिकर्म करते समय पार्यकासन से बैठने का निर्देश है।50 उस समय शरीर को, सम श्वजु और निश्चल रखकर अभ्यन्तर बाधाओं से रहित अनुकूल स्पर्शवाली पवित्र भूमि पर सुख पूर्वक बैठना चाहिए। अपनी गोद में बायें हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखे नेत्र न अधिक खुले हों, न अधिक बन्द हों, ऐसी स्थिति में मन-वचन और काय की विशुद्धिपूर्वक मद रहित होकर, कर्मों का उल्लंघन न करके कृतिकर्म करना चाहिए।
4. कृतिकर्म किस अवस्था में करें ?
जब आचार्य, उपाध्याय इत्यादि ध्यान आदि कार्य में न हों और शान्त चित्त होकर पर्यंकासनपूर्वक आसन में बैठे हों तब हे प्रभो! मैं वन्दना करता हूँ-इस तरह मेधावी मुनि को सम्बोधित करते हुए प्रार्थनापूर्वक कृतिकर्म करे। यह कृतिकर्म, विक्षिप्त चित्त, हुए अथवा पीठ करके बैठे हुए, आहार-निहार करते हुए गुरुओं को नहीं किया जाता। इसके साथ ही विशेष अवसरों पर यथा-आलोचना, सामायिकादि षडावश्यक, प्रश्न पूछने के पूर्व, पूजन, स्वाध्याय, क्रोधादि अपराध के समय, आचार्य-उपाध्याय की वंदना करनी चाहिए।53 जब मुनि वंदना करते हैं, तब अन्य आचार्यादि साधु भी बहुत प्रेम से उन्हें पिच्छि लेकर प्रतिवन्दना करते हैं।
5. कृतिकर्म कितनी बार करें ?
षट्खण्डागम में कहा है कि कृतिकर्म तीनों संध्याकालों में करना चाहिए। इसकी टीका करते हए वीरसेनाचार्य कहते हैं कि कतिकर्म के तीन ही बार करने का ऐसा कोई एकान्तिक नियम नहीं है, क्योंकि अन्य समय में भी वंदना के प्रतिषेध का कोई नियम नहीं है परन्तु, तीन बार तो अवश्य ही करना चाहिए।54 तीनों कालों में किये जाने वाले कृतिकर्म में सामायिक, चतुर्विशतिस्तव और वन्दना इन तीनों आवश्यकों की प्रमुखता होती है, तथा तीनों संध्याकालों में किया जाने वाला कृतिकर्म मुनि और श्रावक दोनों के समान है। मूलाचारकार ने पूर्वाह्न और अपराह्न दोनों कालों के भेद से सात-सात बार करके चौदह कृतिकर्म का विधान किया है। साधु के सात कृतिकर्म इस प्रकार से हैं-(1) आलोचना, (2) प्रतिक्रमण (3) वीर (4) चतुर्विशंतितीर्थंकर ये चार भक्ति प्रतिक्रमण काल के कृतिकर्म हैं तथा (5) श्रुतभक्ति (6) आचार्य भक्ति (7) स्वाध्याय उपसंहार ये तीन स्वाध्याय काल के कृतिकर्म है। 55
6. कृतिकर्म कितनी अवनतियों से करें ?
अवनति से अभिप्राय है भूमि पर बैठकर भूमि स्पर्शपूर्वक नमन।56 क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से रहित मन-वचन और काय की शुद्धिपूर्वक कृतिकर्म में दो अवनति करना चाहिए।57