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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
7. कितने बार शिरोनति (मस्तक से हाथ जोड़कर) कृतिकर्म करे ?
अवनति की तरह मन-वचन और काय की शुद्धिपूर्वक चार बार सिर से नमन करके कृतिकर्म करना चाहिए। अर्थात् सामायिक के प्रारम्भ और अन्त में तथा थोस्सामि दण्डक के प्रारम्भ और अन्त में इस तरह चार बार शिरोनति विधि की जाती है।
8. कृतिकर्म कितने आवर्तों से शुद्ध होता है ?
प्रशस्त योग को एक अवस्था से हटाकर दूसरी अवस्था में ले जाने का नाम परावर्तन या आवर्त है। मन-वचन और काय की अपेक्षा आवर्त के तीन भेद इस तरह बारह भेद हैं। सामायिक के प्रारम्भ में तीन और अन्त में तीन, चतुर्विशतिस्तव के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन कुल मिलाकर बारह आवर्गों से कृतिकर्म शुद्ध होता है। अतः वंदना के लिए उद्यत साधु को ये बारह आवर्त करना चाहिए।59
9. दोष रहित कृतिकर्म
बत्तीस दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए।60 तभी निर्दोष वंदना हो सकती है। वंदना के 32 दोष इस प्रकार से हैं।
1. अनादृत - निरादरपूर्वक या अल्पभाव से समस्त क्रिया-कर्म करना। 2. स्तब्ध - विद्या जाति आदि आठ मदों के गर्व पूर्वक वन्दना करना। 3. प्रविष्ट - पंचपरमेष्ठी के अति सन्निकट होकर या असन्तुष्टता पूर्वक वंदना । 4. परिपीडित- दोनों हाथों से दोनों जघाओं या घुटनों के स्पर्श पूर्वक वंदना। 5. दोलायित - दोलायमानयुक्त होकर अर्थात् शरीर हिलाते हुए वंदना करना। 6. अंकशित - हाथ के अंगठे को अंकश की तरह ललाट से लगाकर वन्दना। 7. कच्छपरिंगित - कछुए की तरह चेष्टापूर्वक रेंगकर वंदना करना। 8. मत्स्योदवर्त - मछली की तरह कमर को ऊंची करके वंदना करना। 9. मनोदुष्ट - य अथवा संक्लेश मनयुक्त वंदना करना। 10. बेदिका बद्ध - दोनों हाथों से दोनों घुटनों को बांधकर वक्षस्थल के मर्दनपूर्वक
वंदना। 11. भय - मरण आदि सात भयों से डरकर वंदना करना। 12. विभ्य - परमार्थ को जाने बिना गुरु आदि से भयभीत होकर वंदना करना। 13. श्रृद्धिगौरव-- वंदना करने से कोई चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ का भक्त हो जायेगा, इस
अभिप्राय से वंदना करना। 14. गौरव - आसनादि के द्वारा अपना गौरव प्रगट करके, अथवा रसयुक्त भोजन
आदि की स्पृहा रखकर वंदना करना। 15. स्तेनित - आचार्यादि से छिपकर-इस ढंग से वंदना करना जिससे उन्हें ज्ञात
न हो।