________________
उत्सर्ग अपवाद मार्ग
157
पूर्ति भी करनी पड़ती है, परन्तु यह उसकी मूल साधना नहीं है। शरीर की स्थिति के कारण आहार-विहार आदि में प्रवृत्ति भी करनी पड़ती है, यदि सर्वथा उसे उपेक्षित कर दे, तो यह निःसन्देह अत्युत्तम कार्य तो है, परन्तु उसमें विद्यमान कमजोरियाँ ऐसा नहीं होने देतीं, और ऐसी स्थिति में कहीं मूल का ही घात न हो जाए। अतः वह तलवार की धार पर चलने के समान, शारीरिक क्रियाएँ भी सम्पन्न करता है, परन्तु उन क्रियाओं में अनर्गल प्रवृत्ति नहीं करता है, क्योंकि इससे उसकी साधना ही सम्भव नहीं। अतः वह साधक दोनों ही स्थितियों में अति सन्तुलन करके चलता है। इसी उभय पक्षीय साधना को उत्सर्ग और अपवाद अर्थात् आत्मिक चर्या उत्सर्ग एवं शारीरिक चर्या को अपवाद मार्ग कहते हैं। वस्तुतः मोक्ष का मार्ग तो एक ही है, उत्सर्ग और अपवाद ये दो मार्ग नहीं हैं। उत्सर्ग और अपवाद ये दोनों नयों के भेद हैं। उत्सर्ग को द्रव्यार्थिक एवं अपवाद को पर्यायार्थिक नय कहते हैं।
अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं। इसके दो भेद हैं. द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक। द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृति है, इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक, तथा पर्याय का अर्थ विशेष/अपवाद/व्यावृत्ति है उसको विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय कहलाता है।165 इन द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नयों को निश्चय और व्यवहार शब्दों में प्रयुक्त किया जाता है। जो यथार्थ स्वरूप को प्रकट करे उसे निश्चय नय और जो प्रयोजनादि की अपेक्षा वस्तु तत्व को कहे उसे व्यवहार नय कहते हैं।
. वस्तुतः परम सामायिक रूप आत्मिक स्थिरता ही मोक्ष मार्ग है। इस स्वरूप को बतलाने वाला उत्सर्ग मार्ग है, परन्तु जब स्वरूप स्थिरता नहीं हो पाती है, और उससे छेद दशा होती है तो उस दशा में भी सामायिक की ओर सन्मुखता लिये हुए परिणाम को मोक्षमार्ग का आरोप होने से उसे अपवाद मार्ग कहा है। सामायिक अवस्था रूप उत्सर्ग-मार्ग को तो सामान्य रूप से कह दिया गया, उसका विशेष भेद एवं व्याख्यान किया ही नहीं जा सकता है। परन्तु अपवाद मार्ग को विशेष रूप से भेद स्प होने के कारण कोई मार्गभूल न हो जाने की आशंका से कहा जाता है। दर्शनपाहुड की टीका में भी "विशेषोक्तो विधिरपवाद इति परिभाषणात्" अर्थात् विशेष रूप से कही गयी विधि को अपवाद कहा है।" विशेष विशेषण इसलिए डाला गया कि जो सामान्य पद्धति के आश्रित नहीं रह पाये, अर्थात् सामान्य नियमों में नहीं रह पाते उन्हें सामान्य रखने के लिए विशेष नियम बनाने पड़ते हैं। इसी कारण "विशेष" विशेषण डाला गया। जैसे कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन के जीव अज्ञानी एवं वक्र गति के जीव थे। अतः उनके लिए मोक्षमार्ग का विशेष रूप से अर्थात् अनेक नियमों उपनियमों में वर्णन करना पड़ा। परन्तु मध्य के तीर्थंकर के शासन के जीव सामान्य थे, अर्थात् अज्ञानी एवं वक्रमति के नहीं थे, वे इशारे में बात समझ लेते थे, और उस बात का छल ग्रहण नहीं करते थे। अतः विशेप नियमों की आवश्यकता