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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
____ इष्ट अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय में अथवा शुभ परिणाम में इच्छाकार होना अर्थात् इनको स्वीकार करना इनमें हर्ष भाव होना, इनमें स्वेच्छा से प्रवृत्ति करना ही इच्छाकार है।
अपराध अर्थात् अशुभ परिणाम अथवा व्रतादि में अतिचार होने पर मिथ्याकार होता है। व्रतादि में लगे दोषों को दूर करने के लिए "जं दुक्कडं तुमिच्छा"4 अर्थात् मेरा दुष्कृत/दोष मिथ्या होवे ऐसा कहकर वह साधु मन वचन काय से इन अपराधों से दूर होकर मिथ्याकार रूप होता है।
प्रतिश्रवण अर्थात् गुरु के द्वारा सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन होने पर उसे सुनकर "आपने जैसा प्रतिपादन किया है वैसा ही है, अन्यथा नहीं" एसा अनुराग व्यक्त करना तथा पुनः सुनने की भावना रखना तथाकार है।'
वसतिका आदि से निकलते समय देवता ( शून्य गृह, विमाचितावास में व्यन्तरों के निवास की सम्भावना होने की अपेक्षा यह कथन सम्भव हो सकता है ) या गृहस्थ आदि से पूँछकर निकलना अथवा पाप क्रियाओं से मन को हटाना आसिका है।
वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित देव या मनुष्य आदि की स्वीकृति लेकर अर्थात् निःसही शब्द उच्चारण करके पूँछकर वहाँ प्रवेश करना और ठहरना अथवा सम्यग्दर्शन आदि में स्थिर भाव रखना निषेधिका है।
अपने कार्य-प्रयोजन के आरम्भ में अर्थात् पठन, गमन या योगग्रहण आदि कार्यों के प्रारम्भ में गुरु आदि की वन्दना करके उनसे पूछना आपृच्छा है। समान है धर्म अनुष्ठान जिनका, वे सधर्मा हैं, तथा गुरु शब्द से दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरू, उपदेश दाता गुरु, अथवा तपश्चरण में या ज्ञान में अधिक जो गुरु हैं - उन सधर्मा या गुरु से कोई उपकरण आदि पहले लिये थे, पुनः उन्हें वापिस दे दियः यदि पुनरपि उनको ग्रहण का अभिप्राय हो तो पुनः पूंछकर लेना प्रतिपृच्छा है।
जिनकी कोई पुस्तक आदि वस्तुएं ली हैं, उनके अनुकूल ही उनकी वस्तुओं का सेवन/ उपयोग करना छन्दन है।
अगृहीत अन्य किसी की पुस्तक आदि वस्तुओं के विषय में आवश्यकता होने पर गुरुओं से सत्कार-पूर्वक याचना करना या ग्रहण कर लेने पर विनयपूर्वक उनसे निवेदन करना निमंत्रण है।