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उत्सर्ग अपवाद मार्ग
भावनाओं का ही चिन्तन करते हैं। पर को बचाने के प्रयत्न का काम तो गृहस्थ पद के योग्य है। अतः उपर्युक्त मान्यताएं अपवाद मार्ग नहीं हैं। वस्तुतः वही अपवाद स्वीकृत है कि जो उत्सर्ग का साधक हो "सामान्य (उत्सर्ग) और " अपवाद" दोनों वाक्य शास्त्रों के एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त हैं। जैसे ऊँच-नीच का व्यवहार सापेक्ष होने से एक ही अर्थ का साधक है, वैसे ही सामान्य और अपवाद दोनों परस्पर एक होने से एक ही अर्थ का साधक है, तथा ही सामान्य और अपवाद दोनों परस्पर एक होने से एक ही प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। 177 जो लोक निंदित न हो, वही श्रमण को आचरणीय है । यही आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं कि जो उपधि (परिग्रह) सर्वथा बंध का असाधक होने से अनिंदित है, संयत के अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होने से संयत जनों के द्वारा अप्रार्थनीय है, और रागादि परिणाम के बिना धारण की जाने से मूर्च्छादिक के उत्पादन से रहित है वह वास्तव में अनिषिद्ध है। इससे यथोक्त स्वरूपवाली उपधि ही उपादेय है, किन्तु किंचित मात्र भी तथोक्त स्वरूप से विपरीत स्वरूप वाली उपधि उपादेय नहीं है। 178
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साधु के एक ही पिच्छिका और एक ही कमण्डलु होता है, क्योंकि उससे ही उसका संयम सिद्ध होता है । दूसरा कमण्डलु व दूसरी पिच्छिका उसको संयम साधन में कारण नहीं है । अवशिष्ट ज्ञानोपकरण (शास्त्र) भी समाधिमरण के समय परिग्रह माना गया है। 179 क्योंकि परिग्रह तो एकान्तिक ( सम्यक् एकान्त ) रूप से अन्तरंग छेद का कारण होने से त्याज्य है और परिग्रह के निषेध का उद्देश्य अन्तरंग छेद का ही निषेध है । अतः समाधि- मरण के समय सर्वथा परिग्रह का त्याग किया जाता है " कोई निरपेक्ष (किसी भी वस्तु की अपेक्षा रहित ) त्याग न हो तो श्रमण के भाव की विशुद्धि नहीं होती, और जो भाव अविशुद्ध है उनके कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है। 180 तथा परिग्रह के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा आरम्भ या असंयम न हो यह कैसे हो सकता है ? तथा जो परद्रव्य में रत हो वह आत्मा को कैसे साध सकता है। 181 अतः जिस उपधि के (आहार - निहारादिक के ) ग्रहण - विसर्जन में, सेवन करने में, सेवन करने वालों के छेद न होता हो उस उपधि को काल, क्षेत्र को जानकर इस लोक में श्रमण को विचरण करना चाहिए। 1 82 इसकी टीका में आचार्य जयसेन कहते हैं कि काल की अपेक्षा पंचमकाल या शीत आदि ऋतु की अपेक्षा भरतक्षेत्र या नगर जंगल आदि इन दोनों को जानकर जिस उपकरण से स्व-संवेदन
क्षण भावसंयम का अथवा बाहरी द्रव्य संयम का घात न होवे, उस तरह से मुनि को चलना चाहिए। वस्तुतः श्रामण्य धर्म में विवेक की अति आवश्यकता है। अतः विचार पूर्वक आचरण करने वाले साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूप में अवस्थान रखने के लिए, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छह बातों की अच्छी तरह पर्यालोचन करके, सर्वाशन विद्धाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहार आदि में प्रवृत्ति करना चाहिए। 183 यदि पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ रहे, व जिन्हें आधे आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान होती है, उन्हें अवमौदर्य तप करना चाहिए । 184