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उत्सर्ग अपवाद मार्ग
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है, ऐसा स्यावाद सर्वथा अनुसरण योग्य है।186
इसके तात्पर्य को और स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन कहते हैं कि, उपर्युक्त दशा वाला उत्सर्ग-मार्गधारी कर्मबन्ध के भय से प्रासुक आहार को ग्रहण नहीं करता है, लेकिन शुद्धोपयोग में निश्चलता न पाकर चित्त में आर्तध्यान से संक्लेश भाव हो जाएगा। तब शरीर त्यागकर अर्जित पुण्य से देवलोक प्राप्त होगा। जहाँ बहुत काल तक असंयमित होने से पाप बंध होगा, अतः शुद्धात्मा की भावना को साधन कराने वाला थोडासा भी कर्मबन्ध हो तो लाभ अधिक है, ऐसा जानकर अपवाद की अपेक्षा सहित उत्सर्ग को साधता है। अतः किसी कारण से औषधि, पथ्य आदि के लेने में कुछ कर्मबन्ध होगा, ऐसा भय करके रोग का उपाय न करके शुद्धात्मा की भावना भी नहीं कर पाता है, तो महान् कर्मबन्ध होता है। अथवा व्याधि के उपाय में प्रवर्तता हुआ भी हरीतको अर्थात् हरण के बहाने गुण खाने के समान इन्द्रियों के सुख में लम्पटी होकर संयम की विराधना करता है, तो भी महान् कर्मबन्ध होता है। इसलिए साधु-उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद को त्यागकर शुद्रात्मा की विराधना न करते हुए औषधि पथ्यादि के निमित्त अल्प कर्म बन्ध होते हुए भी बहुत गुणों से पूर्ण उत्सर्गमार्ग की अपेक्षा सहित अपवाद को स्वीकार करता है। क्योंकि अपवाद का ग्रहण भी त्याग के लिए होता है, साथ ही अपवादमार्ग उत्सर्गमार्ग का साधक भी है। निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेयस्कर नहीं, सापेक्षता ही श्रेय है।
इस तथ्य को चर्चा संग्रह में पं. रायमल्ल जी ने बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि "मुनिराज कमण्डलु पुस्तकादि विनयपूर्वक माँग भी लेवे हैं, अर आप सो गुणों में अधिक हो ताके अर्थ अज्ञानी जीव या ज्ञानी जीवों से औषधादि अर्थ याचना भी करै है-दोनों मुनियों का धर्म तो अयाचक ही है परन्तु बहुत गुण से अल्प अपराध अच्छा है,
और जो कोई मुनि के उपसर्ग होय व जिनधर्मादिक को उत्थापन होय तो ताके मेंटने के अर्थ संयम भी छोडे हैं। (जैसे विष्णुकुमार मुनि ने अकम्पनाचार्य के उपसर्ग को दूर करने हेतु दीक्षा का परित्याग किया था।) पड वाने पुण्य ही उपजै है। अपवाद इस प्रकार डमरू की नाई, संयम रखने के अर्थ वा परिणामों की विशुद्धता के अर्थ दोनों संयमों में प्रवर्ते
है।187
इस प्रकार हम देखते हैं कि यथार्थ मार्ग तो उत्सर्ग ही है, वही वस्तु धर्म है, मोक्ष मार्ग है, जैसे पूर्व में स्पष्ट कर आये हैं। यही निश्चयनय है, परन्तु जब उस मार्ग में रहा नहीं जा सकता है, किन्तु किन्हीं कारणों से अपवाद का अवलम्बन किया जाता है। जहाँ पिच्छि- कमण्डलु को अपवाद स्वीकृत किया है। वहाँ योग्य प्रासुक, औषधि, तृणादि के उपयोग को भी अपवाद स्वीकृत किया है। अतः अपवाद दो प्रकार का भी ठहरता है। एक तो वास्तविक पिच्छि कमण्डलु रूप अपवाद; द्वितीय उपचरित देशकाल जन्य स्वीकृत उपचरित व्यवहार अपवाद। परन्तु इनका भी त्याग करना पड़ता है। स्वस्थ श्रमण को