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पिच्छि- कमण्डलु
सहज प्राप्त भी नहीं है, अपितु प्रयत्न प्राप्त है एवं मृदु, सुकुमार, आदि पंचगुण भी नहीं हैं। अतः मयूरपिच्छ ही सर्वोत्कृष्ट ठहरती है ।
यह सर्वोत्कृष्ट मयूर पिच्छि होते हुए भी इसका स्वच्छन्दता पूर्वक उपयोग नहीं किया जा सकता है। यदि कोई श्रमण पिच्छि को तकिया, मन्त्र-तन्त्र, झाड़, फूँक, गण्डा, तावीज आदि लौकिक किसी भी कार्य हेतु अपनी सुख-सुविधा यश आदि की चाह के रूप में करता है अथवा सूर्य की तेज धूप से बचने के लिए शिर मस्तक ढाँकने के काम में ले, तो उस पिच्छि को भोग सामग्री के रूप में प्रयोग करने के कारण वह भोगी है, योगी नहीं । अतः ऐसा श्रमण प्रायश्चित्त कल्याण के योग्य है। इसी प्रकार के भाव का निम्न श्लोक है।
उच्छीर्षस्य विधानेऽपि प्रतिलेखस्य छंदे । मस्तकारवरणाद्देयं कल्याणं वा न दुष्यति ।। 156
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अति प्राचीन काल से श्रमण पिच्छि धारण करते आये हैं । हिन्दुओं के पद्मपुराण के तेरहवें अध्याय में तथा विष्णुपुराण एवं शिवपुराण में पिच्छि का निरूपण दिगम्बर साधु के. लिए किया गया है। क्रमशः उदाहरण देखें
योगी दिगम्बरो मुण्डो वर्हिपिच्छधरोद्विजः (पद्म पु. ) ततो दिगम्बरो मुण्डो वर्हिपिच्छधरो द्विजः (विष्णु पु.) मयूर चन्द्रिका मुण्जपिच्छिकां धारयन् करे (शिव पु. )
पिच्छि- कमण्डलु धारण करने पर लोगों की श्रद्धा होती है। मोक्षमार्ग में विश्वास रहता है । परन्तु पिच्छि- कमण्डलु धारण करने मात्र से ही वह मोक्ष का अधिकारी नहीं हो जाता है। सरहपाद में लिखा है कि 157
पिच्छिग्गहणे दिट्ठि मोक्ख ता मोरह चमरह । उच्छ भोअणे होई जाणता करिह तुरंगह । ।
अर्थात् यदि पिच्छि ग्रहण करने मात्र से मुक्ति की प्राप्ति होती तो इसका प्रथम अधिकारी मयूर होना चाहिए, और यदि उण्छ भोजन से मुक्ति मिलती तो पशुओं को, जो वन में इधर-उधर नाना वृक्षों के पत्ते खाकर अपनी जीवन वृत्ति चलाते हैं, उनको मोक्ष पहले मिलता। इसका आशय यह है कि सम्यक् चारित्र से ही मुक्ति मिलती है। 158
भ्रमण के ग्राह्य ये उपकरण व्यवहार शास्त्र के अंग हैं। जब मुनि आचार्य की वन्दना करते समय पिच्छि को मस्तक से लगाकर पश्वर्धशाय्या से "मैं वन्दना करता हूँ। ऐसा
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