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मूलगुण
123 केशलोंच करने की विधि बतलाते हुए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि "शिर दाढ़ी और मूंछ के केशों का लोच हाथ की अंगुलियों से करते हैं। दाहिने हाथ से प्रारम्भ करके बाएं तरफ आवर्त रूप करते हैं।98 यह केशलोंच करते समय शिर पर भस्म (राख) लगा लेते हैं,99 ताकि बाल आसानी से पकड़ में आ जावे और यदि उखाडते हुए खून आदि निकले तो भस्म खून को बन्द कर सके तथा वह भस्म जीवाणु अवरोधक भी होता है।
इस प्रकार इस विधि से किया गया केशलोंच वैराग्य, परीषह जय और संयम का प्रतीक है। (श्वे. ) उत्तराध्ययन में इसे कायक्लेश तप के अन्तर्गत रखा गया है।100 अदीनता, निष्परिग्रहता, वैराग्य और परीषह की दृष्टि से श्रमणों को केशलुंचन करना आवश्यक मानते हुए मूलगुण में समाहित किया है।101
23. आचेलक्य:
दिगम्बर परम्परा में श्रमण को निर्वस्त्र रहना आवश्यक है, और निर्वस्त्र का सीधा अर्थ सम्पूर्ण नग्न ही माना है। इसके बिना उसके अपरिग्रह और अहिंसावत असंभव माने हैं। वस्त्र परिग्रह हैं और उसकी स्वच्छता के लिए हिंसा आवश्यक है, जो कर्मबन्धन का ही कारण होने से कभी भी मुक्ति का कारण नहीं हो सकती है। इसी कारण इसको मूलगुण में समाहित किया है। भ. महावीर को इसी कारण निगण्ठनातपुत्र कहा गया। जैसे हाथी को उन्मार्ग में जाने से रोकने के लिए अंकुश आवश्यक है, वैसे ही इन्द्रिय विषयभोगों से रोकने के लिए परिग्रह त्याग अत्यावश्यक है।
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में श्रमणों के लिए दस प्रकार का कल्प बतलाया है। कल्प, व्यवस्था या सम्यक् आचार को कहते हैं। इन दस कल्पों का पालन श्रमण को अवश्य करना होता है। अतः इन्हें स्थित कल्प कहते हैं। वे स्थित कल्प निम्न प्रकार से हैं:
(1) अचेलकपना (2) उद्दिष्ट का त्याग (3) वसति कर्म के पिण्डादिक का त्याग (4) राजपिण्ड का त्याग (5) कृतिकर्म (6) महाव्रत (7) पुरुष की ज्येष्ठता (8) प्रतिक्रमण (9) षड्ऋतुओं में एक-एक महीना को एक स्थान पर रहना (10) वर्षाकाल में चार मास तक एक स्थान पर रहना।
यहाँ पर यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि इल कल्पों में महाव्रत को गिना देने पर भी अचेलक कल्प को पृथक् और सबसे प्रथम गिनाया है । इससे भी महावीर के अचेलक धर्म का समर्थन मिलता है।