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मूलगुण समीक्षा 28. स्थिति भोजन (खड़े-खड़े भोजन):
दिगम्बर परम्परा में श्रमण को खड़े-खड़े हाथ में ही भोजन करने का विधान है। खड़े-खड़े भोजन करने का मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि प्रथम तो खड़े-खड़े भोजन करने में आकण्ठ उदरपूर्ति नहीं हो पाती है जिससे प्रमाद नहीं होता है। दूसरा कारण है कि कदाचित् बैठकर आहार लें तो कभी श्रेष्ठ सिंहासन मिले तब हर्ष होय, और न मिले तब देष होय, इस भांति राग द्वेप होते संयम का अभाव होय। 17 स्थिति भोजन का तात्पर्य यह भी है कि "जब तक खडे होकर और अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उन्हीं के द्वारा भोजन करने की सामर्थ्य रखता हूँ, तभी तक भोजन करने में प्रवृत्ति करूँगा, अन्यथा नहीं। इस प्रतिज्ञा का निर्वाह और इन्द्रिय संयम तथा प्राणि संयम साधन करने के लिए श्रमणों को स्थिति भोजन का विधान है।118 दिगम्बर परम्परा में तो यह चर्या अद्यावधि अक्षुण्य है। परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में उनकी मान्यतानुसार महावीर तो स्थिति भोजन ही करते थे1191 परन्तु इस परम्परा में बैठकर एवं पात्र में भोजन करने की प्रथा है। भगवान बुद्ध प्रारम्भिक काल में पाणिपात्री एवं स्थित भोजन करने वाले थे, परन्तु जब उन्हें यह दुष्कर लगा तो उन्होंने नवीन धर्म चलाया लेकिन श्वेताम्बर परम्परा इतना न कर सकी और वह महावीर की ही अनुयायी बनी रही।
स्थित होकर आहार की विधि बतलाते हुए आशाधर जी कहते हैं कि "हाथ धोकर यदि स्थान पर चींटी आदि चलते-फिरते दिखायी दें या इसी प्रकार का कोई अन्य निमित्त उपस्थित हो तो साधु को मौनपूर्वक दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए। तथा जिस समय भोजन करें उसी समय दोनों पैरों के मध्य में चार अंगुल का अन्तर रखकर तथा हाथों की अंजुली बनाकर खडे होवे। जितने समय तक साधु भोजन करे उतने समय तक ही उन्हें इस विधि से स्थित रहना चाहिए।120
समीक्षा:
पूर्वोक्त कहे श्रमण के स्वरूप में संक्षिप्त रूप में सामायिक तथा विस्तार रूप से 28 मूलगुणों का एक मात्र उद्देश्य जीव-दया पूर्वक आत्मशान्ति प्राप्त करना रहा है, जो कि मूलगुणों के विवेचन से स्पष्ट ही होता है। मलगणों में सबसे पहिले अहिंसा महाव्रत को रखने का भी यही कारण रहा है, और यही शेष सभी मूलगुणों में छाया रहा है। सत्यमहाव्रत, अचौर्य अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य में पापों से विरतिपूर्वक दूसरों के प्राणों की रक्षा ही साध्य है। इसी प्रकार पंचइन्द्रिय विजय में भी, इन्द्रिय द्वारा परद्रव्यों में आसक्ति और उनकी प्राप्ति के प्रयत्न में होने वाली हिंसा से बचने का उद्देश्य है। तथा इन्द्रियों को जीतने के लिए कहा,ताकि जब यह इन्द्रियजयी हो जाएगा, तो फिर उनकी आसक्ति में होने वाली हिंसा नहीं होगी, तथा आत्मसाधना सुलभ होगी। इसी तरह पंच समिति के माध्यम से जैनाचार्यों ने जीवों की सम्पूर्ण जीवन पद्धति को पकड़ा है। संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी में