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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
श्रमण दीक्षा के पूर्व उसका स्वरूप समझना भी अत्यन्त आवश्यक है।वस्तुतः दीक्षा लेना आसान है, भावुकता में आकर कोई भी व्यक्ति दीक्षा ले सकता है, परन्तु उसका यथार्थ निर्वाह सब किसी से नहीं हो सकता है।123
तन्त्रवार्तिक में दीक्षा शब्द की व्युप्पत्ति परक अति सुन्दर अर्थ किया है
"दीयते ज्ञानसद्भावः क्षीयते पशुबन्धनम्। दान-क्षपण-सामर्थ्याद दीक्षा सा कथिताबुधैः ।।
अर्थात् दीक्षा का आद्य अक्षर ज्ञानसद्भाव दान परक है तथा अन्त्य अक्षर पशुबन्धन जन्म- बन्धन के क्षय का सूचक है। इस प्रकार दान और क्षपण के सामर्थ्य से युक्त विधि को दीक्षा कहते हैं। दीक्षा की पात्रता के सम्बन्ध में आ. वीरनन्दि ने आचारसार में स्पष्ट करते हुए कहा कि,प्रथम तो जिसने सांसारिक इन्द्रिय जन्य भोग को हेय एवं उनको आत्मिक गुणों का घातक होने का विचार किया है तथा संसार शरीर और भोगों से उत्पन्न हुयी क्लेश रूपी अग्नि से जिसका हृदय सन्तप्त है जो अक्षय, अविनाशी पदस्पी अमृतानन्द का अन्वेषण करने का इच्छुक है, जिनवाणी के श्रवण आदि गुणों से जिसकी बुद्धि पवित्र हो गयी है, श्रेष्ठ भव्यता का जो भूषण है, जिसने अन्य मिथ्यादृष्टियों कथित चारित्र के दूषण को जान लिया है। तदनन्तर राग द्वेष से उत्पन्न संसार रूपी कारागृह से भीरू, शूद्रवर्ण से रहित, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण वाला, अखण्डित अंगयुक्त, राजा और लोक से अविरुद्ध, पारिवारिक जनों से अनुमति लिया हुआ वह भव्य, आचार्यवर के समीप जाकर दीक्षार्थ निवेदन करता है।124
___ आ. वीरनन्दि के उपर्युक्त अंश के आधार पर यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि, श्रमण-दीक्षा के लिए समुचित पात्रता अत्यन्त अपेक्षित है, और वे पात्रताएं अनेक स्पों में पायी जाती हैं। जिनका विभाजन हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं।
1. संसारिक विषयों की तुच्छता अनुभव करते हुए उत्कृष्ट यथार्थ वैराग्य का धारक हो। 2. सत्यान्वेषिणी बुद्धिपूर्वक तत्वों के हेय-ज्ञेय-उपादेय रूप से आत्महितकारी तत्वों का
निर्णय कर लिया हो। 3. जिनवाणी के श्रवण से जिसकी बुद्धि पवित्र हो गयी हो। 4. मिथ्यादृष्टियों द्वारा कथित चारित्रिक दूषण का भी परिज्ञान हो। 5. कुल से श्रेष्ठ, परिपूर्ण अंगवाला एवं लोकविरुद्ध कार्यों से दूर हो। 6. पारिवारिक जनों को सूचित करके आया हो।