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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
मुख्यतः पाँच प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं, और उनसे हिंसा के अवसर होते हैं। प्रथम, जीव पैदा होता है, तो वह चलता है, बोलता है, भाषा का प्रयोग करता है, शक्ति का संचय होने पर शरीर की प्रवृत्ति होती है । शरीर की शक्ति का उपयोग सामान्यतः परद्रव्यों को हिलाने-डुलाने, उठाने - धरने में करता है। शरीर में भोजन ग्रहण कराके मांस-मंजा - वीर्य आदि के द्वारा शक्ति संचित होकर अवशिष्ट सामग्री बाहर निकलती है। यह एक मानव की सम्पूर्ण सामान्यतः जीवन क्रिया होती है। यह प्रक्रिया विवेक और अविवेक इन दो शैलियों में आयोजित होती है। श्रमण की यह जीवन दशा किस शैली में आयोजित हो, इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु यदि भ्रमण को चलने का विकल्प हो तो सूक्ष्म जीवों तक को बचाते हुए चले; यदि बोलने का विचार उठे तो, वही एवं उतना ही बोले कि जिससे जीवों का हित हो, अपने संघ के अलावा गृहस्थ जनों को आदेश देने का उसे अधिकार ही नहीं है, इस प्रकार वह हित- मित-प्रिय वचन ही बोले, आहार का विकल्प हो तो योग्य, निर्दोष, शुद्ध भोजन ही करे, वस्तुओं को उठाने रखने का विकल्प हो तो जीव दया का विशेष ध्यान रहे । यहाँ तक कि यदि मल-मूत्र त्याग का भी विकल्प हो तो समुचित निर्विघ्न, लोकापवाद रहित, अहिंसक स्थान पर ही वह ऐसा करें।
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वस्तुतः जिस श्रमण ने राग-द्वेष- मोह जन्य अपने आत्मा की हिंसा को बचाया, ऐसे सच्चे अहिंसक के बाह्य प्रवृत्ति ही ऐसी होती है। उसकी अहोरात्र चर्या षडावश्यकों में ही आयोजित रहती है। इसके साथ अन्य कार्य जैसे केशलोंच में उसकी सिंह एवं स्वाभिमान वृत्ति आचेलक्य उसके शारीरिक पक्ष पर भी उत्कृष्ट उदासीनता, निर्विकारता की चरम स्थिति उसके आदर्श परिणामों की मूर्ति एवं विशिष्ट विश्वसनीयता का आधार है। अस्नानव्रत, शरीर के श्रृंगार की अनावश्यकता की परिचायक, और आत्मिक श्रृंगार एवं पवित्रता की प्रसिद्धि; भूमि शयन, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य में इन्द्रिय दम की दृष्टि तथा अदंत धोवन, एक भुक्ताहार, स्थिति भोजन भी उत्कृष्ट तप तथा शरीर के प्रति अनैकान्तिक दृष्टिकोण की परिचायक है। क्योंकि भोजन करते हैं और नहीं भी करते हैं। भोजन करते तो इसलिए हैं कि शरीर की स्थिति बनी रहे, परन्तु अति अल्प करते हैं, अतः भोजन नहीं भी करते हैं। इस प्रकार उनके 28 मूलगुण अहिंसा एवं अपरिग्रह के इर्द-गिर्द ही ठहरते हैं, अथवा कहें परम सामायिक के सहचर हैं । अन्तरंग परम सामायिक के होने पर बहिरंग शुद्धि होती ही है, किन्तु बहिरंग जीवों के दया में प्रमाद एवं परिग्रह की अभिलाषा में निर्मल शुद्धात्मानुभूति रूप शुद्धि नहीं होती है। विशेष प्रकार के वैराग्य पूर्वक परिग्रह का त्याग होता है तब ही चित्त शुद्धि होती है। लेकिन यदि ख्याति - पूजा-स्वर्ग इत्यादिक भोग सामग्री के लाभ की अभिलाषा के कारण बहिरंग श्रमण दशा धारण होने से चित्त शुद्धि नहीं होती है; तब तो वह वेशी है मुनि नहीं। अतः ऐसी दशा में उसके 28 मूलगुण एक स्वांग मात्र है चित्त शुद्धि पूर्वक किया गया बाह्याचरण ही 28 मूलगुण की आत्मा है।
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