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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
सारांश) ।
जिनसेन कृत महापुराण से :
बनारस का राजा अकम्पन एक अति प्रतापी राजा था। उसने अपने जीवन में विविध प्रकार के भोग भोगे । अत्यन्त भोगों को भोगते हुए उसने सोचा कि, जिस प्रकार औषध से पेट की अग्नि प्रदीप्त हो जाती है, उसी प्रकार इन भोगों से भी तृष्णारूपी अग्नि प्रदीप्त हो उठती है । अतः इन भोगों से बढ़ी हुयी तृष्णा रूपी अग्नि की शान्ति के लिए कोई दूसरा ही उपाय सोचना चाहिए। इस प्रकार वे संसार शरीर भोगों के विविध पक्षों की असारता पर सोचने लगे । एवं अत्यन्त दुखित हुए, और पंच परावर्तन के स्वरूप का विचार करते हुए सोचा कि मैंने तो सभी भोग संसार के भोग लिए हैं, आज यदि पुरुष है तो कल स्त्री - नपुंसक भी होना पड़ेगा। इस प्रकार विचारते हुए सोचा कि "अब मैं जिनेन्द्रदेव के कहे हुए वचनों का चिन्तवन कर अवश्य ही संसार का चिन्तवन करूँगा। क्योंकि निरन्तर संसार रूपी वन के भीतर परिभ्रमण करने से मैं अब यमराज से डर गया हूँ।" इस प्रकार तृष्णारूपी विष को उगल देने वाले बुद्धिमान राजा अकम्पन ने बहुत शीघ्र हेमार्गंद को बुलाकर पूज्य परमेष्ठियों की पूजापूर्वक उसका राज्याभिषेक किया, लक्ष्मी को चंचल समझ पट्ट्बन्ध से बाँध कर उसे अचल बनया, और हेमागंद को सौंपकर श्री भगवान वृषभदेव के समीप जाकर अनेक राजाओं और रानी सुप्रभा के साथ दीक्षा धारण की। तथा अनुक्रम से श्रेणियां चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न किया (45/204-206)।
शान्तिनाथ पुराण से :
वीर बलभद्र अपराजित है. भाई अनंतवीर्य एक समय शय्या पर सोता हुआ कष्ट के बिना मृत्यु को प्राप्त हो गया। अपने भाई के वियोग का शोक बहुत था । तथापि उसे त्यागकर तप के लिए अपराजित इच्छुक हुए। तदनन्तर धैर्यशील अपराजित ने राज्य का गुरुतर भार अरिंजय नामक ज्येष्ठ पुत्र पर रखकर उपशम भाव को प्राप्त होते हुए विशुद्ध अभिप्राय वाले सात सौ राजाओं के साथ लक्ष्मी का परित्याग कर, यशस्वी तथा तपस्वीमुनि यशोधर को नमस्कार कर अपराजित, वैराग्य के कारण मुनि हो गये । ( शान्तिनाथ पुराण
6/118-122)
अशनिघोष अपने पूर्व भव सुनकर संसार से विरक्त हो मुनि हो गया ।
(शा.पु. 8 / 118-121 )
सहस्रायुध ने अपने पिता मुनिराज की तपस्या से प्रभावित हो दीक्षा धारण कर ली । (शा.पु. 10/134-35 )