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श्रमण दीक्षा की पात्रता
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जिसकी वन्दना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं इस प्रकार से निन्दा का विचार किया। बाद में ज्ञात होने पर शिष्यों ने पश्चात्ताप भी किया। कालान्तर में सेठ अर्हदत्त को सारी जानकारी मिलने पर अपने को बहुत धिक्कारा----जो मुनि को देखकर आसन नहीं छोडता....नमस्कार आहार से सन्तुष्ट नहीं करता वह मिथ्यादृष्टि है। अतः वन्दना करने की प्रतिज्ञा की। (पदापुराण सर्ग 92)
6. सप्तर्षियों के आगमन का समाचार सुनकर शत्रुघ्न दर्शनार्थ पहुँचे एवं पारणा के लिए प्रार्थना की। तब प्रमुख मुनि ने कहा कि हे नरश्रेष्ठ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया है, उसे ग्रहण करने के लिए मुनि प्रवृत्ति नहीं करते। जो न स्वयं की गयी है, न दूसरों से करायी गयी है और न मन से जिसकी अनुमोदना की गयी है, ऐसी भिक्षा को विधिपूर्वक ग्रहण करने वाले योगियों का तप पुष्ट होता है।----तदनन्तर शत्रुघ्न ने नगर में कुछ दिन रहने के लिए कहा----इतना कहकर श्रद्धा से भरा हुआ शत्रुघ्न चिन्ता करने लगा कि मैं प्रमाद रहित हो विधिपूर्वक मुनियों के लिए मन वांछित आहार कब दूंगा। (प.पु. 92/46-52)
7. कृतान्तवक्र सेनापति ने दीक्षा लेने की इच्छा से राम से कहा कि मैं मिथ्यामार्ग में भटक जाने के कारण इस अनादि संसार में खेद खिन्न हो रहा हूँ। अतः मुनिपद धारण करने की इच्छा रखता हूँ। ---तदनन्तर मोहाक्रान्त राम ने अति कठिनाई से आँसू रोककर आज्ञा दी,एवं उसकी ऐसी भावना के लिए मुक्त कंठ से प्रशंसा की और अपने लिए सम्बोधन का वचन माँगा। (प.पु. पर्व 107)
8. हनुमान की विरक्ति का समाचार सुनते ही उसके मन्त्रियों एवं स्त्रियों में भारी शोक छा गया। सबने भरसक प्रयत्न किया कि यह दीक्षा न लें, परन्तु हनुमान अपने ध्येय से विचलित नहीं हुए एवं धर्मरत्न नामक मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली। और निर्वाणगिरी नामक पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया। (प.पु.113 पर्व)
9. लक्ष्मण के आठ कुमारों और हनुमान की दीक्षा का समाचार सुनकर राम हँसते हुए कहते हैं कि अरे! इन लोगों ने क्या भोग भोगा। (114 वां पर्व)। वे ही राम अन्त में वैराग्य उपजने पर दीक्षित होते हैं। आहारार्थ नगर में प्रवेश करते हैं। परन्तु जब राम प्रथम बार नगर आते हैं तो समस्त शहर में भगदड़ मच गयी। लोग सादर कहने लगे कि मेरे यहाँ भोजन करो, लड्डू लो, रस लो----आदि- आदि कहने लगे एवं भीड़ के कारण पतली गलियों में लोगों के चोटें आयीं----हाथियों ने क्षोभ के कारण खम्भे तोड़ डाले। अतः मुनि राम वापिस वन चल गये। अद्भुत प्रकार का क्षोभ देखकर नियम लेते हैं कि, यदि वन में आहार मिलेगा तो लूँगा अन्यथा नहीं। राजा प्रतिनन्दी.और रानी प्रभवा वन में ही उन्हें आहार देकर अपना गृहस्थ जीवन सफल करते हैं। (प.पु. पर्व 119-120 का