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जैन श्रमण : स्वस्प और समीक्षा
साथ-साथ पृथिवीमती नामक आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। (प.पु.86/17-24)
3. मथुरा का राजा मधु शत्रुघ्न से घमासान युद्ध में अत्यन्त घायल हुआ। जिससे वह बड़ी धीरता एवं पश्चात्ताप के साथ दिगम्बर मुनियों के वचनों का स्मरण करने लगा, तथा अपने प्रमाद पर विभिन्न दृष्टिकोणों से पश्चात्ताप करने लगा। ऐसी दशा में जीवन-पर्यन्त सावध योग का त्याग करके प्रत्याख्यान में तत्पर होता है। तत्वविचार में तत्पर हुआ वह पंचपरमेष्ठी को स्मरण करता हआ समीचीन ध्यान में आस्ट हो, अंतरंग एवं बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह छोडकर ही बाह्य में हाथी पर बैठे-बैठे ही उसने केश उखाड़ कर फेंक दिये। ‘मधु के शरीर में गहरे घाव योद्धाओं को दिख रहे थे, परन्तु दुर्धर धैर्य धारण किये हुए उस पारलौकिक योद्धा मुनि मधु को अपनी आत्मा ही दिख रही थी। देखा तो तत्काल आया और पापों का पश्चात्ताप किया। तदनन्तर समाधि-मरण कर मुनि मधु क्षणमात्र में ही सनत्कुमार स्वर्ग में उत्तम देव हुए (प.पु. 89/95-115)
4. वीर शिरोमणि राजा श्रीनन्दन डमरमंगल नामक एक माह के बालक को राज्य देकर अपने पुत्रों के साथ प्रीतिंकर मुनिराज के समीप दीक्षित हुए थे। समय पाकर श्रीनन्दन राजा केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्धालय में प्रविष्ट हुए और उनके उक्त पुत्र उत्तम मुनि हो सप्तर्षि हुए। (92/1-7)
( यहाँ पर एक माह का पुत्र किसका था यह उल्लेख नहीं है।)
5. एक दिन सप्तऋषि मुनि ने वटवृक्ष के नीचे वर्षा योग धारण किया था..... । आहारार्थ वे एक दिन अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए - विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हदत्त सेठ के घर पहुंचे। उन मुनियों को देखकर चिन्ताग्रसित भ्रमित हो अर्हदत्त सेठ इस प्रकार विचारने लगा कि, यह वर्षाकाल कहाँ और मुनियों की चेष्टा कहाँ ? इस नगरी के आस- पास प्राम्भार पर्वत की कन्दराओं, नदी के तट पर वृक्ष के मूल में, शून्य घर में, जिनालयों में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो मुनिराज स्थित है, उत्तम चेष्टाओं को धारण करने वाले वे मुनिराज समय का खण्डन कर अर्थात् वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर परिभ्रमण नहीं करते। परन्तु ये मुनि आगम के अर्थ को विपरीत करने वाले हैं, ज्ञान से रहित हैं, आचार्यों से रहित हैं और आचार से भ्रष्ट है अतः यहाँ घूम रहे हैं। यद्यपि वे मुनि असमय में आए थे तो भी अर्हदत्त सेठ की भक्ति एवं अभिप्राय को ग्रहण करने वाली वधू उन्हें आहार देकर सन्तुष्ट किया था।
तदनन्तर पृथिवी से चार अंगुल ऊपर चलते हुए उनको द्युति भट्टारक ने देखा। सप्तर्षियों ने मन्दिर में प्रवेश किया। तब द्युति भट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि विधि से उनकी पूजा की। द्युति भट्टारक के शिष्यों ने यह हमारे आचार्य चाहे