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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
दीक्षा ग्रहण करना चाहिए, तथा इस गृहत्यागक्रिया में सबसे पहले सिद्ध भगवान का पूजन कर समस्त इष्टजनों को बुलाकर और उनकी साक्षी में पुत्रों के लिए सब कुछ सौंप कर गृहत्याग करना चाहिए।136 जो कि पुराण के प्रस्तुत उद्धरणों से स्पष्ट है।
श्वेताम्बर परम्परा के आगम उत्तराध्ययन पर शोध करते हुए डा. सुदर्शन लाल जी ने कहा कि "दीक्षा लेने के पूर्व माता-पिता व सम्बन्धी जनों से अनुमति लेना चाहिए। (उत्तरा. 14.6-7, 19.10-11) यदि वह घर का ज्येष्ठ व्यक्ति हो तो पत्रादि को सम्पत्ति वगैरह सौंपकर दीक्षा ले लेना चाहिए ( उत्तरा. 9.2) यदि माता-पिता पुत्र को दीक्षा के लिए अनुमति न देकर भोगों के प्रति प्रलोभित करें तो दीक्षा लेने वाले का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह माता-पिता को समझाने का प्रयत्न करे। पश्चात् आत्म- कल्याणार्थ दीक्षा ले लेवे। (उत्तरा. 14.19 ) । नेमिनाथ और राजुल ने दीक्षापूर्व माता-पिता से अनुमति ली थी या नहीं, इसका यद्यपि ग्रन्थ में उल्लेख नहीं परन्तु दीक्षा ले लेने पर वासुदेव आदि उनके कुटुम्बी जन उन्हें अभिलषित मनोरथ प्राप्ति का आशीर्वाद अवश्य देते हैं, (उत्तरा. 22.25-26,21 )। इससे उनकी अनुमति की पुष्टि हो जाती है। दीक्षा के पूर्व माता-पिता से आज्ञा लेना उनके प्रति (लौकिक) विनय एवं कर्तव्य परायणता का सूचक है।137
दीक्षा की पात्रता के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय एक मत हैं। श्रामण्यार्थी की इस पात्रता में इतनी अपेक्षाओं के बावजूद परीक्षा- प्रधानी आचार्यों का अभिमत है कि, जो इस अति बालक हो, अति वृद्ध हो, नपुंसक हो, अंगहीन या अधिक अंग वाला हो, जड़, रोगी, कोढ़ी, चोर, राज्यापराधी, उन्मत्त, अन्ध, दासव, दुष्ट मूढ, श्रृणार्तिपीडित, कैद पाया हुआ, भागकर आया हुआ, पुरुष लिंग में चर्म का न होना, अतिशय दीर्घ अण्डकोष असामान्य हो तो वह दीक्षा के अयोग्य है। तथा अन्यान्य हीन अथवा सापराध आचरणों वाला हों तो उन्हें दीक्षा नहीं देनी चाहिए।138
बाल्यावस्था में दी गयी दीक्षा अपरिपक्व एवं यौवनोद्रेक का अनुभव न होने के कारण प्रायः कलंकित होती है। जैसे बाल्यावस्था में की गयी शादी राष्ट्रीय एवं सामाजिक अपराध है, वैसे ही बाल्यावस्था में जबकि उसकी स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता नहीं होती है, ऐसे में उसे किसी के द्वारा इस मार्ग पर दीक्षित कर देने पर तो उस बच्चे की स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता के साथ खिलवाड़ किया गया है। अतः यह राष्ट्रीय, सामाजिक, एवं धार्मिक अपराध समझना चाहिए। वर्तमान में श्वे. साध्वी इन्दुप्रभा को बाल्यावस्था में दी गयी दीक्षा इसका ज्वलन्त प्रमाण है। जब वह युवा हुयी और अपनी सामर्थ्य के पहिचान की परिपक्वता आयी, तो उसने अपने को इसके अयोग्य पाया। अतः साध्वी पद की गरिमा रखते हुए उस पद को त्यागा, और गृहस्थ- धर्म मजिस्ट्रेट के सन्मुख स्वीकार किया।139 यद्यपि यह कहा जा सकता है कि उसने साध्वी दशा का परित्याग करने के कारण निंदनीय कार्य किया; परन्तु यह तो तब कहा जाए, जब उसने हिताहित बुद्धि की परिपक्वता में यह