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दीक्षा ग्रहण विधि
मध्य, भीड़ एकत्रित कर दीक्षा देने की परम्परा जैनधर्म सम्मत नहीं है। जैसी परम्परा आज चल रही है । समस्त जैन पुराणों के दीक्षा प्रसंगों में दीक्षार्थी शहर से वन की ओर जाता है, और वहाँ दीक्षा लेता है, तो वह स्वयं एक परिवर्तन महसूस करता है और व्रतों में स्थिर रहता है। परन्तु आज यह सब न होने के कारण दीक्षार्थी अपने को परिवर्तित महसूस ही नहीं करता है। अतः इस कारण शिथिलाचार में ही दीक्षार्थी का जन्म होने से वह पनपता रहता है।
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दीक्षा दान का मोक्षमार्ग में अतिमहत्वपूर्ण स्थान है। अतः दीक्षा काल में दिये जाने वाले 28 मूलगुणों रूप भेदों को सर्वज्ञदेव की साक्षी में नवागत दीक्षार्थी में स्थापित किये जाते हैं।145 "दत्तं सर्वस्वमूलोत्तर परमगुरू" अर्थात् मुनि को मूलगुण एवं उत्तरगुण सर्वस्व अर्हन्त तीर्थंकर देव द्वारा ही प्रदत्त माने जाते हैं। मुनि के मूलोत्तर गुण वस्तुतः अर्हन्तदेव की ही धरोहर मानी जाती है, क्योंकि उन्होंने ही इस स्वरूप का प्रतिपादन किया है। ऐसी स्थिति में यदि वह मूलगुणों को अपने भ्रष्ट जीवन से कलंकित करता है, तो उसके स्वयं के जीवन का अहित तो है ही; परन्तु सर्वज्ञ देव की धरोहर का धारक होने से उसकी धरोहर में दूषण लगाने पर सम्पूर्ण जिन-शासन को कलंकित करने के कारण महान् पाप का भागी होता है। आचार्य मल्लिषेण ने इस धरोहर की श्रमण को रक्षा करने के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि जैसे भूख से पीड़ित हुआ निर्धन व्यक्ति भी अपनी वमन को स्वयं नहीं खाता, उसी प्रकार जिन दीक्षा काल में अखण्डवत को रखने की जो प्रतिज्ञा की थी उसका विचार कर 146 और त्यागे गये भोगों का पुनः स्मरण मत कर।
जैसे दीक्षा देने योग्य स्थान के विषय में जैन धर्म ने विचार किया है वैसे ही दीक्षा देन योग्य काल (समय) भी विचारणीय रहा है। दिगम्बर श्वेताम्बर मत उत्पत्ति के सन्दर्भ में, दिगम्बर मत की उत्पत्ति में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने कल्पना की है कि शिवभूति को रात में आचार्य ने दीक्षा दी थी, उसी से दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुयी है । परन्तु यह यथार्थ नहीं है क्योंकि भाषा समिति के पालक रात में बोलते नहीं है अतः दीक्षा सम्भव नहीं है। जैन पुराणों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि, दीक्षा रात में दी गयी हो अथवा उसके लिए मुहुर्त, नक्षत्र आदि देखे गये हो और मुहुर्त न होने पर दीक्षा न हो सकती हो। दीक्षा स्वयं में पवित्र है उसके लिए पवित्र समय की अपेक्षा नहीं है। तथा जो दीक्षा का इच्छुक है। और दीक्षा लेने जा रहा है वह क्या मुहुर्त न होने पर लम्बी अवधि तक इन्तजार करेगा ? तथापि प्रकृति के प्रकोपों एवं प्रसिद्ध लोकापवादों को ध्यान में रखते हुए आचार्य जिनसेन ने महापुराण में कहा है कि जब ग्रहों का उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्यचन्द्र पर परिवेष ( मण्डल) हां, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघपटल से ढका हो, नष्ट मास अथवा अधिक मास का दिन हो, संक्रान्ति हो, अथवा क्षय तिथि का दिन हो, उस दिन बुद्धिमान आचार्य मोक्ष की इच्छा रखने वाले भव्यों के लिए दीक्षा विधि नहीं करना चाहते। 147