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बनकर रह जाएंगे। नीतिकारों ने भी कहा है कि
जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
कनकभूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रयुणि प्रणिधीयते । न स विरौति न चापि च शोभते, भवति योजयितुर्वचनीयता ।।
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अर्थात् यदि सुवर्ण में संग्रहणीय मणि त्रयु अर्थात् रंग में (रांगा) लगा दी जाए तो उसकी शोभा नष्ट हो जाती है, तब न वह शब्दायमान होती है, और न शोभित ही, और जो ऐसा मणित्रय संयोग करता है उसकी भी निन्दा होती है । ' अतः दीक्षादायक आचार्य का भी कर्तव्य है कि वह उचित पात्र को ही उसकी परीक्षा एवं वैराग्य को पहिचान करके ही दीक्षा दान दे।
दीक्षा दान के काल को जैनाचार्यों ने अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया है। जैसे गृहस्थ जीवन में विवाह का अत्यधिक महत्त्व है, जहाँ से एक नवीन जीवन शैली प्रारम्भ होकर विधिवत् सामाजिक सदस्यता प्राप्त होती है । यह महोत्सव एक मण्डप तले होता है, जिसमें गृहस्थ- धर्म के मंगलाचार गाये जाते हैं (शुभसूचक प्रेमगीत स्त्रियाँ गाती हैं ) ठीक इसी तरह सन्यास धर्म में प्रवेश करते समय, जो कि जीवन जीने की दूसरी वीतरागी शैली है, इसमें सन्यास का इच्छुक व्यक्ति पंच परमेष्ठी रूप समाज के समक्ष, तीन लोक के मण्डप के नीचे, तत्वज्ञान रूप सुगन्ध से भीगे, वैराग्य रूपी हाथों से "निर्वस्त्र" रूप दशा की वरमाला लेकर मोक्षरूपी लक्ष्मी का वरण करता है। उस समय अनन्तज्ञानादि रूप सिद्ध गुणों की भक्ति के मंगलाचार गाते हुए वीतरागी सर्वज्ञ की समाज में प्रवेश की सदस्यता मिलती है। दीक्षा के प्रसंग का इस प्रकार का भाव आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार गाथा 3 की मंगलाचरण की टीका में व्यक्त किया है। 143 जिसकी स्पष्टता उपर्युक्त तरह से की जा सकती है।
दीक्षा ग्रहण विधि :
श्रमण चर्या को जिनेन्द्र भगवान का जीवन्त रूप कहा गया है, वे चलते-फिरते सिद्ध कहलाते हैं । अतः उनके इस मानदण्ड को बनाये रखने के लिए भ्रमण चर्या में प्रवेश करने वालों से कुछ वैशिष्ट्य की भी अपेक्षा रखी गयी है। जो कि पात्रता प्रकरण में विवेचन कर आये हैं । जैनधर्म में केशलोंच, नामकरण, नग्नता एवं पिच्छि ये व्यवहार से जिनलिंग के चिन्ह कहे गये हैं। जैन धर्म के अनेक पुराणों में दीक्षाकाल के प्रसंगों को जिनको कि पूर्व में प्रस्तुत किया है। उनके आधार पर तो दीक्षार्थी प्रबल वैराग्य लेकर वन में आचार्य के पास जाता है, और उनसे दीक्षा की प्रार्थना के पूर्व समुचित नियमों का पालन करके, दीक्षा याचना करता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने बोधपाहुड में स्पष्ट रूप से दीक्षा का स्थान " सूना घर, वृक्ष का मूल, कोटर, उद्यान, वन, श्मशान भूमि, पर्वत की गुफा शिखर, भयानक वन और वस्तिका 144 इनमें दीक्षा देने का विधान किया है। सार्वजनिक स्थानों में शहर के