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दीक्षा अनुमति विधान निर्णय लिया हो, उसे तो दूसरों ने दीक्षित करवाया था कि वह परिपक्व हुयी तो उसने अपने परिणामों को इस कार्य के लिए अयोग्य पाया। अतः अपने परिणामों के आकलन में ईमानदार होने से गृहस्थ-धर्म धारण करते हुए, इन्दुप्रभा का इस दृष्टि से यह कदम अनिंद्य है।
इस बालदीक्षा के अतिरिक्त, जबरन पकड़ कर किसी को दीक्षा अथवा पूर्व दीक्षित को जो दीक्षा छोडना चाहता है उसे जबरदस्ती उस पर स्थापित नहीं किया जा सकता है। जबरन पकड़कर दीक्षा की एक घटना नवम्बर 82, गुजरात के दाहोद शहर की है। जहाँ पर रायपुर (म.प्र. ) के एक डाक्टर श्री सुरेश को षडयन्त्रपूर्वक गुजरात में आचार्य (दिग. ) सन्मति सागर के संघ की संचालिका ब्र. मैनावाई ने आचार्य श्री के स्वास्थ्य के बहाने बुलाकर रात में कमरे में बन्द करके जबरदस्ती केशलोंच कर दिया। डॉ. श्री सुरेश काफी रोये भी, परन्तु इनको धर्म का भय दिखाकर मुंहबन्द कर दिया। 40 समाज के कुछ प्रबुद्ध वर्ग ने विरोध भी किया परन्तु धर्म-भीर लोग इन अत्याचारी हिटलरी धार्मिक तानाशाह श्रमणाभासों के दुराचारों को सहती रही। ऐसी अनेक दीक्षाएँ इन आचार्यों ने दी, जो कालान्तर में पुनः भ्रष्ट होकर गृहस्थ बने अथवा वर्तमान में भी उसी पद पर रहकर भ्रष्ट जीवन-यापन कर रहे हैं। परन्तु आश्चर्य तो यह है कि ऐसे वेशधारियों को निरन्तर चरित्र-चक्रवर्ती की उपाधि से भी अलंकृत किया जाता रहा है।
इसी प्रकार जो साधु एक बार दीक्षित हो चुका है, और यदि वह उस पद की महत्ता को समझते हुए पुनः स्वयं को अयोग्य पाकर अथवा किसी अन्य कारण से उसे पद को त्यागना चाहता है तो प्रथम तो उसका स्थितिकरण सावधानीपूर्वक करना चाहिए, परन्तु उसके निर्णय में शारीरिक शक्ति का प्रयोग अथवा अन्य किसी प्रकार के दबाबों का उपयोग नहीं किया जा सकता है। जैसा कि प्रसिद्ध पुरातत्त्वाचार्य, महात्मा गांधी के अनन्य सहयोगी एवं अहमदाबाद के प्रसिद्ध जैन ग्रन्थागार के संस्थापकों में से एक मुनि श्री जिनविजय जी ( श्वेता. ) के अपनी दीक्षा छेद के समय हुआ।141 वे अपने अभिनन्दन ग्रन्य में अपना जीवन वृत्त लिखते हैं कि, वे किस प्रकार अपने संघस्थ शिथिलताओं से ऊब गये थे तथा उनकी तीव्र अध्ययन की अभिलाषा, एवं कुछ वैयक्तिक कमजोरी इस पद को त्यागना चाहती थी, ताकि वे स्वतन्त्र रूप से अध्ययन कर सकें। इसके लिए उन्होंने जब संघ छोड़ने की इच्छा व्यक्त की. तो संघ के आचार्य ने बहत डांटा। एक दिन जब वे रात में संघ छोड़कर भागे, तो पता चलने पर उनको पकड़ा गया व काफी उनको मारने, पीटने एवं धमकाने जैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। अनेक बार उन्होंने रात के अंधेरे में संघ छोडा. एवं हर बार पकडे गये व काफी शारीरिक यातनाएँ दी गयीं। अन्त में श्री जिनविजय जी विजयी हुये। ऐसी अनेकों घटनाएँ हैं, जो अपनी एक अलग शोध की ही अपेक्षा रखती हैं। यहाँ पर तो मात्र इतना ही कहा जायेगा कि साधुत्व जैसा उत्तम रत्न यदि विशुद्ध सुवर्ण में नहीं लगाया गया तो उसका मूल्य और उपयोग दोनों ही मरवौल