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जैन श्रमण : स्वस्प और समीक्षा
उसका नाम रखते हुए मस्तक को बायें हाथ से स्पर्श करते हुए निम्न मन्त्र पढ़ते हैं।"
"ॐ णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लाए सव्वसाहूणं । ॐ परमहंसाय परमेष्ठिने हंस हंस हं हां हं हो है हः जिनाय नमः जिनं स्थापयामि संवौषट् ।
इस मंत्र को पढ़कर श्रामण्यार्थी में "जिन" के रूप में 28 मूलगुणों की उसमें नाम स्थापना कर देते हैं, तथा वह अट्ठाइस मूलगुण स्वीकार करके अपने गुरुजन से अपने कर्तव्य कर्म को सुनता है और उसे स्वीकार करते हुए श्रमण हो जाता है। तत्पश्चात् गुर्वाबलि देते हैं।
स्वस्ति श्री महावीर निर्वाणाब्दे----तमे मासानामुत्तमे मासि----पक्षे----तिथि वासरे मूलसंघे . सरस्वती गच्छे सेनगणे श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यपरम्परायां गुरू श्री----तिच्छिप्य श्री----शिष्यस्य शिष्यः ----नामद्येयस्त्वमसि ।151
अथ पिच्छोपकरणदानम्
ॐ णमो अरहंताणं। भो अन्तेवासिन्! षड जीवनिकायरक्षणाय मार्दव सौकुमार्यरजः स्वेदाग्रह लघुत्व पंचगुणोपेतमिदं पिच्छोपकरणं गृहाण! गृहाण! इति पिच्छिकादानम्।
'अथ शौचोपकरण प्रदानम्
ॐ णमो अरहताणं। रत्नत्रयपवित्रीकरणांगाय बाह्याभ्यन्तर मलशुद्धाय नमः । भा अन्तेवासिन्! इदं शौचोपकरणं गृहाण! गृहाण! इति गुरु: वामहस्तेन कमण्डलु दद्यात् ।
अथ शास्त्र दानम्
ॐ णमो अरहताणं। मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलज्ञानाय द्वादशांगश्रुताय नमः । भोअन्तेवासिन्! इदं ज्ञानोपकरणं गृहाण! गृहाण! इति शास्त्र दानम् ।
इस प्रकार इस दीक्षा के पश्चात् ही अन्य मुनि प्रतिवन्दना करते हैं। पिच्छि-कमण्डलु
पिच्छि शब्द केवल मयूर पंख का वाचक है। अमरकोषकार ने लिखा है "पिच्छिवर्हेनपुंसके" पिच्छि और वह मयूर पंख के वाचक हैं और नपुंसक लिंग हैं। यह मयूर पिच्छि दिगम्बर मुनि के लिए संयम का साधन तो है ही, साथ ही मुद्रा भी है। मुद्रा अर्थात् चिन्ह की सर्वत्र आवश्यकता एवं मान्यता है। नीतिसार में कहा गया है कि