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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा जैनधर्म के मुक्ति पथ में इनकी प्रमुखता नहीं होते हुए भी लोक पद्धति में इन तथ्यों की मान्यता है, ग्रहों का उपराग, ग्रहण, आदि को अशुभ माना जाता है। यदि कदाचित् दीक्षार्थी के पाप कर्म के उदय से कुछ अशुभ घटित हो गया, तो सामान्य जन तो उन आचार्य को दोष देंगे कि उन्होंने अच्छे मुहुर्त में दीक्षा नहीं दी थी। आचार्य विवेकी नहीं है - आदि-आदि बातें लोकापवाद में प्रचलित होगी। तथा द्वितीय तथ्य यह भी है कि उपयुक्त दीक्षा के लिए अयोग्य काल प्रकृति की असामान्य स्थिति है। ऐसे समय में अधिकांशतः लोग भय से शंकाग्रस्त एवं असामान्य रहते हैं। अतः ऐसे समय में दीक्षा जैसे काम में प्रचलित लोक पद्धति को भी स्वीकारा है। उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त अन्य कोई मनोवैज्ञानिक कारण सम्भवतः नहीं हैं।
श्रमण दीक्षा, योग्य आचार्य से ली जाती है तथापि तीर्थंकर किसी से दीक्षा नहीं लेते हैं, जैन पुराण इसका साक्षी है, और यह नियम है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने दीक्षाकाल में पूर्व दिशा की ओर मुख करके पद्मासन से विराजमान होकर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करके पंचमुष्ठि केशलोंच करके स्वयं श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये थे। १० सिद्ध भगवान को आदर्श इस कारण से बनाते हैं कि, उनमें सर्वांश शुद्धता प्रकट होने से सबसे बड़े हैं। चूंकि एककाल में उस क्षेत्र में एक ही तीर्थंकर होता है, जो सबसे बड़े माने जाते हैं, अतः वे अपना कोई गुरु नहीं बनाते हैं। इस कारण उनकी किसी आचार्य से दीक्षा नहीं होती है, क्योंकि वे अति पौरुपवन्त होते हैं। तीर्थंकर दीक्षा-काल में सिद्धों को ही नमस्कार करके दीक्षा लेते हैं।149 परन्तु सामान्य जन के लिए यह आवश्यक है कि, वह किसी आचार्य के समक्ष जाकर गुरु के एवं संघ के सम्मुख पूर्व की ओर पदमासन बैठकर दीक्षा की विनीत भाव से प्रार्थना करे। (पूर्व की ओर बैठकर याचना करना, प्रगति पथ पर अग्रसर होने की भावना का द्योतक है)
आचार्य के समक्ष जाकर दीक्षा याचना का भी कोई अन्तिम नियम नहीं माना जा सकता है। क्योंकि ऐसा भी सम्भव है कि श्रामण्यार्थी को कोई योग्य दीक्षा दायक आचार्य उपलब्ध न हो सके। उस क्षेत्र और उस काल में कोई साधु होवे ही नहीं, साधुओं की परम्परा कुछ अवधि के लिये समाप्त भी हो सकती है। तिलोयपण्णत्ति में यह जो आया कि पंचम काल में अन्त तक जैन श्रमण रहेंगे, लेकिन यह नहीं लिखा कि अखण्ड रूप से रहेंगे, कुछ काल के लिए बाधा भी आ सकती है। अतः ऐसे समय में श्रामण्यार्थी को बिना आचार्य के श्रमण धर्म को अंगीकार करना होगा। द्वितीय यह है कि साधु हो, लेकिन उस समय उपलब्ध न हो सके जैसे कि राजा मधु ने हाथी पर चढ़े ही बिना किसी आचार्य के श्रमण धर्म को स्वीकारा था। परन्तु दीक्षा और दान शब्द के भावों पर ध्यान देवें तो ये शब्द तो द्वित्व के सूचक है-प्रथम दीक्षा लेने वाला, द्वितीय दीक्षा का दान देने वाला आचार्य है। दान शब्द ही सापेक्ष है।