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जैन श्रमण : स्वस्प और समीक्षा
कर सकता है। नेमिनाथ और राजुल विवाह की मंगल वेला में ही संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो गये थे। सदाचार पालन करने की सामर्थ्य वाला प्रत्येक व्यक्ति जो संसार के विषयों से विरक्त होकर मुक्ति की अभिलाषा करता है, दीक्षा लेने का अधिकारी है। यह कोई नियम नहीं कि युवावस्था में भोगों को भोगना चाहिए, और फिर वृद्धावस्था में दीक्षा लेनी चाहिए। यद्यपि यह सत्य है कि युवावस्था में युवकों की चित्त वृत्ति सांसारिक विषयों की ओर अधिक आकर्षित रहती है, जिससे उक्त अवस्था में दीक्षा लेना कठिन होता है, परन्तु यह भी सत्य है कि वृद्धावस्था में शरीर के शिथिल हो जाने पर धर्म का पालन कर सकना और भी कठिन है, जबकि युवावस्था में शक्य है, युवावस्था से ही यदि धर्म के पालन करने का प्रयत्न किया जाए तो वृद्धावस्था में भी उसके धारण की सामर्थ्य बनी रहती
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि दीक्षा में इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि वह शक्ति, सदाचार से योग्य है या नहीं, एवं संसार से भयभीत तथा विषयों के प्रति आशक्ति कम हुई है या नहीं, फिर चाहे वह किसी भी आयु में अथवा किसी भी परिस्थिति में ही क्यों न हो।" यद्यपि जैनधर्म में बालदीक्षा निषेध है क्योंकि इस समय वह अबोध होता है; परन्तु कोई विशेष प्रतिभा एवं वैराग्य सम्पन्न हो तो वह बालक स्वेच्छा से दीक्षा ले सकता है, जैसे कि आ. कुन्दकुन्द, श्वे. आचार्य हरिभद्र एवं वैदिक धर्म में प्रसिद्ध सन्त शंकराचार्य बाल दीक्षित थे, परन्तु यह राजमार्ग नहीं है।134 वस्तुतः यहाँ तो सामर्थ्य और समझदारी को पूर्ण-सजग रखने में ही समझदारी है। क्योंकि सामर्थ्य पहला पंख है तो समझदारी दूसरा। दोनों के सहारे ही मोक्षमार्ग की उड़ान भरी जा सकती
यहाँ पर एक बात और है कि श्रमण दीक्षा के लिए कोई विशेष संहनन की भी आवश्यकता नहीं है। आजकल जैन श्रमण में व्याप्त शिथिलाचार के साथ यह कहकर सन्तुष्टि की जाती है कि पंचमकाल में चतुर्थकाल जैसा संहनन नहीं, अथवा कुन्दकुन्दाचार्य आदि जैसी आज शक्ति नहीं है, एवं मूलगुणों का स्वरूप विवेचन उस समय किया गया था। आज के संहनन व शक्ति को देखते हुए श्रमण के स्वरूप में किंचित शिथिलता स्वीकार कर लेनी चाहिए। परन्तु श्रमण के स्वरूप में 28 मूलगुणों में ऐसा कोई भी गुण नहीं है, जो शरीर के विशेष शक्ति की अपेक्षा रखता हो। आ. कुन्दकुन्ददेव कहते है कि-"वज्रवृषभनाराच आदि छह, शरीर के संहनन कहें हैं, उन सबमें ही दीक्षा होना कहा है, जो भव्य पुरुष हैं। वे कर्म क्षय का कारण जानकर इसको अंगीकार करें। इस प्रकार नहीं हैं कि दृढ़ संहनन वज्रवृषभ आदि हैं उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपाटिका संहनन में न हो, इस प्रकार निर्ग्रन्थरूप दीक्षा तो असंप्राप्तासृपाटिका संहनन में भी होती है।135 वस्तुतः श्रामण्य स्वरूप में शरीर की नहीं, अपितु आत्मबल की अधिक अपेक्षा होती है तथा कदाचित् शरीर में कोई विकृति आती है तो या तो समाधिमरण लेवे या समन्तभद्र की तरह