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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है। अहो! इस पुरुष के शरीर की रमण (स्त्री) के आत्मा! तू इस पुरुष के आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्चय से जान। इसलिए तू इस आत्मा को छोड़। जिसे ज्ञान ज्योति प्रगट हुयी है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूति रूपी अपनी अनादि रमणी के पास जा रहा है। अहो! इस पुरुष के शरीर के पुत्र आत्मा! तू इस पुरुष का जन्य नहीं है, ऐसा तू निश्चय से जान। इसलिए तू इस आत्मा को छोड़। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुयी है, ऐसा यह आत्मा आज आत्मा रूपी अपने अनादि जन्य के पास जा रहा है। इस प्रकार बड़ों से, स्त्री से, पुत्रों से अपने को छुड़ाता है।
तत्पश्चात् गुरु के समक्ष पंचाचार अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्याचार को भी अंगीकार करते हुए इनके सम्बन्ध में यह विचारता है कि "अहो काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हव, अर्थ व्यंजन और तदुभयसम्पन्न ज्ञानाचार। मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा का नहीं है, (अध्यात्मभाषा में शुद्धात्मा वही है जो एक त्रिकाल, धुव, अविनाशी, एवं अविकारी है-यहाँ अंगीकृत ज्ञानाचार ऐसा नहीं है, मतिज्ञानादिक होने से कर्मजन्य एवं कर्मसापेक्ष है तथा क्षणिक है जीव का त्रिकाल स्वभाव नहीं अतः वह ज्ञानाचार आत्मा का नहीं है इसी प्रकार से आगे सभी जगह पंचाचारों के कथन में लगेगा) तथापि मैं तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से ( निमित्त से) शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूं। अहो! निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपवृंण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना स्वरूप दर्शनाचार ! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ, जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ। अहो, ‘मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत, पंचमहाव्रत सहित काय-वचन-मनगुप्ति और ईर्या-भाषा-एषणा-आदाननिक्षेपण प्रतिष्ठापन समिति स्वरूप चारित्राचार! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ। अहो! अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग स्वरूप तपाचार! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ, जब तक तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को प्राप्त कर लूँ। अहो! समस्त आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति को अगोपन स्वरूप वीर्याचार! मैं यह निश्चय से जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ, जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूँ - इस प्रकार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता हूँ।126
शुभ राग के उदय की भूमिका में गृहवास का और कुटुम्ब का त्यागी होकर व्यवहार रत्नत्रयरूप पंचाचार अंगीकार किया जाता है। यद्यपि वह ज्ञानभाव से समस्त शुभाशुभ