________________
श्रमण दीक्षा की पात्रता
139
तीर्थंकर शान्तिनाथ ने ऊपर की ओर मुखकर लोकाग्रभाग में विराजमान सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार कर पंच मुष्ठियों द्वारा केशलोंच कर सब परिग्रह का त्याग कर दिया। दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्यय ज्ञान तथा सब ऋद्धियां प्राप्त हो गयी।
(शा.पु. 15/21-27) दीक्षा प्रसंग समीक्षा :
जैन पुराणों के उपर्युक्त दीक्षा प्रसंगों को देखकर इस बात की काफी पुष्टि होती है कि पात्रता के लिए उपर्युक्त् षडाधारों की अति आवश्यकता है। यद्यपि उपर्युक्त दीक्षा प्रसंग अति प्राचीन ऐतिहासिक प्रकरण हैं, तथापि पुराणकार की इन नियमों से सहमति व्यक्त होती है। वस्तुतः पुराणकार तो कोई नियम या तथ्य किसी घटना को लेकर प्रस्तुत करते हैं। अतः उपर्युक्त दीक्षा की घटनाएँ भी दीक्षा के नियमों की ओर ही संकेत करती हैं। इन पुराणकारों के इस नियम के दिशासूचक यंत्र आ. कुन्दकुन्द की सम्भवतः ये गाथायें रही होंगी।
"आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरु कलत्तपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणदंसणचरित्त ततवीरियायारं ।। समणं गणिं गुणड्ढे कुलस्ववयोविसिट्ठमिट्ठदरं। समणेहि तं पि पणदो पडिच्छमं चेदि अणुगहिदो।। प्र.गा. 202-203।।
अर्थात् श्रामण्यार्थी बंधुवर्ग से विदा मांगकर बड़ों से, स्त्री और पुत्र से मुक्त किया हुआ ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप और वीर्य के पंचाचारों से युक्त आचार्य की सेवा में उपस्थित होवे। जो कि कुल से, गुणों से, रूप से तथा वय से विशिष्ट हो और जो श्रमणों को अति इष्ट हैं ऐसे आचार्य के समीप जाकर "मुझे स्वीकार करो" ऐसा कहकर प्रणाम करता है एवं अनुगृहीत होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने इन गाथाओं की टीका में बंधुवर्ग से अनुमति लेने की शैली का निम्न निरूपण किया है
"इस पुरुष के शरीर में बंधुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ। इस पुरुष का आत्मा किंचितमात्र भी तुम्हारा नहीं है, इस प्रकार तुम निश्चय से जानो। इसलिए मैं तुमसे विदा लेता हूँ। जिसे ज्ञान ज्योति प्रगट हुयी है ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अपने अनादिबंधु के पास जा रहा है।
अहो! इस पुरुष के शरीर के जनक के आत्मा!, अहो! इस पुरुष के शरीर की जननी के आत्मा इस पुरुष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो। अतः तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुयी है ऐसा यह आत्मा