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श्रमण दीक्षा की पात्रता
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यहाँ यह ज्ञात होना चाहिए कि जैनधर्म में इन 28 मूलगुणों को हीनाधिक न होने की बात भी कही है,122 अर्थात् इन 28 मूलगुणों में यदि एक गुण भी कम होगा तो वह जैन श्रमण नहीं है। इसका भाव इतना मात्र है कि इन क्रियाओं को विपरीत रूप से करता है तो वह संयम भ्रष्ट है। उपर्युक्त क्रिया में से किसी-किसी में प्रवृत्ति ही न हो तो श्रामण्य में दूषण नहीं है। जैसे समिति स्वरूप में देखें कि यदि श्रमण चले तो ईर्या-समिति के पालन का प्रश्न उठेगा और यदि वह कुछ दिन/मास चले ही नहीं तो उसके ईर्या- समिति आदि न होने से ईर्या समिति का पालक समझा जाए ? जैसे कि बाहुबली तपस्या हेतु एक वर्ष तक खडे रहे, तो उनके पाँचों समिति नहीं हुयी। आहार ही नहीं किया तो एक भुक्ताहार कैसे संभव ? और स्थिति भोजन कैसे रहा ? खुले में रहने से अस्नानव्रत कैसे रहा, शयन ही नहीं तो भूमिशयन कैसे ? व्रतों में अतिचार न लगने से आलोचनादिक कैसे ? जबकि वे सच्चे श्रमण थे। इसी प्रकार अन्य अनेकों श्रमणों के साथ संगत बैठता है। अतः निष्कर्ष रूप में 28 मूलगुणों के हीनाधिक न होने के निर्देश का भावार्थ यही है कि, यदि वह कोई भी बाह्य क्रिया करेगा तो वह 28 मूलगुण की सीमा का अतिक्रमण नहीं करेगा। 28 मूलगुण श्रमण के शुभ भावों का मापदण्ड है। अतः इस कोटि के शुभ भावों जैसा ही उसका जीवन होगा। श्रमण की विकल्पात्मक भूमिका में ये मूलगुण आचरणीय हैं, ध्यानावस्था में इनका स्थान नहीं है। इसी कारण श्रमण बाहुबली एक वर्ष तक तप करते रहे, केशलोंच न करने एवं खुले में रहने से पानी पड़ने पर भी स्नान-जन्य पाप के भागी नहीं हुए। परन्तु इस आधार पर वर्षात् में बुद्धि पूर्वक पानी में खड़े होकर स्नान की पूर्ति नहीं की जा सकती है। अतः यह कहा जा सकता है कि यदि श्रमण को बाह्य क्रिया का कोई विकल्प होगा तो वह 28 मूलगुणों की परिधि में ही होगा, न ही उस परिधि का उल्लंघन होगा और न ही संकोचन-यही मूलगुणों का स्वरूप है।
श्रमण दीक्षा की पात्रता : __ जगत् में प्रत्येक कार्य की सम्पन्नता के लिए कार्यवाहक को उस कार्य में दीक्षित होने के लिए कुछ न कुछ पात्रता की आवश्यकता होती है। कार्य कोई न कोई आधार को लिये हुए ही होता है, बिना आधार के कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता है। उसी प्रकार श्रमण चर्या में दीक्षित होने के लिए उसके योग्य आधार की अत्यन्त आवश्यकता होती है। जैसे सिंहनी का दूध स्वर्ण के पात्र में ही टिकता है, उसी प्रकार श्रमण दीक्षा का भी आधार उत्कृष्ट शुभभावात्मक सदाचारमय जीवन होता है। साथ ही दीक्षा लिये जा रहे पद की पूर्णतः जानकारी होना भी आवश्यक है, यह ही राजमार्ग है। इसीलिए मैंने श्रमण के स्वरूप विवेचन में प्रथम 28 मूलगुणों पर विस्तृत विचार किया, तत्पश्चात् ही दीक्षा की पात्रता का विवेचन कर रहा हूँ। श्रमण का स्वरूप समझे बिना एवं उसकी पात्रता का ज्ञान किये बिना धारण की गयी श्रमण चर्या सम्यक् एवं चिरस्थायी नहीं होती है। तभी तो राजा ऋषभदेव के साथ दीक्षित हुए 4 हजार राजाओं ने दीक्षा का स्वरूप समझे बिना एवं अपनी सामर्थ्य एवं परिणाम की तौल किये बिना ही दीक्षित होने पर पुनः भ्रष्ट होकर उन्मार्गी बने। अतः