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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
भी वह शयन कर सकता है। मूलाचार की आचार वृत्ति में कहा है 115 तृणादिक स्वयं के द्वारा बिछाया गया हो तो उसी पर शयन कर सकता है, अन्य के द्वारा बिछाये गये तृण पर नहीं शयन कर सकता है जैसा कि आजकल कुछ साधु करते हैं। जिससे बहुत संयम का घात न हो ऐसा अत्यन्त अल्प तृण ही ग्राह्य होना चाहिए एवं च तृण, काठ, शिलापट्ट में से किसी एक का ही प्रयोग कर सकता है। तृणादिक का प्रयोग तो विशेष परिस्थिति में ही किया जा सकता है। आचार्य पद्मनन्दि ने तो तृणादिक के प्रयोग को दुर्ध्यान का कारण बतलाया है। उन्होंने कहा कि इन दिगम्बरों के गृहस्थ के योग्य अन्य स्वर्णादिक का ग्रहण करना तो बने ही कैसे ? उनके तो शय्या के लिए त्रणादि का ग्रहण करना अंगीकार करना भी दुष्टध्यान का कारण पाप का कारण तथा निर्ग्रन्थ की हानि का कारण होता है एवं लज्जास्पद होता है परन्तु क्या करें ? अब जो निर्ग्रन्थों के भी ग्रहण है सो यह कलिकाल का ही अतिशय ग्रहण करके प्रवेश हुआ है। "
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आ. पद्मनन्दि ने जिस तृणादिक को दुर्ध्यान का कारण कह कर विरोध किया और उस तृण को परवर्ती ग्रन्थकारों ने प्रथम तो समर्थन करते हुए आंशिक रूप से अपवाद स्थिति में स्वीकार किया। परन्तु वर्तमान में इसको पूर्णतः स्वीकार कर लिया गया है। मैंने इस मूलगुण के एक सर्वे में देखा कि आज अधिकांश जैन श्रमण शरीर प्रमाण तो क्या एक - एक फिट तक की मोटाई रूप में तृण के ऊपर, सम्पूर्ण शयन क्षेत्र में दूसरों के द्वारा बिछाये गये तृणों पर शयन करते हैं। मैंने देखा कि मुनि निर्वाण सागर आदि कुछ ही इसके अपवाद हैं, वे तृणचटाई आदि का उपयोग नहीं करते हैं।
जहाँ पर स्त्री, पुरूष एवं नपुंसक लोग न होवें और असंयत जनों के आने-जाने सं रहित हो ऐसे गुप्त एकान्त प्रदेश साधु के शयन करने के योग्य हैं। वहाँ पर दण्ड के समान शरीर को करके अर्थात् दण्डाकार या धनुष के समान शयन तथा रात्रि के पिछले प्रहर पर किंचित मात्र ही शयन करना चाहिए। यह भूमि शयन मूलगुण स्वरूप है ।
26. अदंत धोवन :
अंगुली, नख, दांतोन एवं तुरा विशेष के द्वारा पत्थर या छाल आदि के द्वारा दाँत के मल का शोधन नहीं करना यह संयम की रक्षा रूप अदन्त धावन व्रत है तथा इससे वीतरागता की पुष्टि एवं प्रसिद्धि होती है।
27. एकभुक्ताहार :
उदय एवं अस्तकाल में से तीन-तीन घडी से रहित मध्यकाल के एक, दो अथवा तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना यह एकमुक्त मूलगुण है।