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जैन श्रमण : स्वरुप और रामीक्षा स्वरूप है, और उसके बचने के लिए ही वस्त्र धारण किया जाता है। अतः जो सवस्त्र है उसे नाग्न्य परीषह नहीं होती। और यदि महामूल्यवान रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करने वाले भी निर्ग्रन्थ श्रमण कहे जाते हैं तो सग्रन्थ किसे कहा जाएगा ?
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जाएगा कि परिग्रह रहित श्रमणों की दशा नग्न ही होती है। यद्यपि यह कोई नियम नहीं कि जो नग्न हो वह परीषह-जयी हो ही हो; क्योंकि ऐसे तो पागल आदि पुरुष आदिवासी पुरुष एवं पशु आदि भी नग्न होते हैं। उन्हें भी श्रामण्य भाव को प्राप्त मानना पड़ेगा। अतः बाह्य से अन्तरंग की व्याप्ति नहीं परन्तु जिसके अन्तरंग में महावैराग्य एवं निर्ग्रन्थता के भाव होंगे वह निश्चित ही बाहर में भी महावैराग्य रूप नग्न है। अतः अन्तरंग से बाहर की व्याप्ति है। जो पुरुष अपने स्वरूप में मग्न होगा उसे बाहर की धोती, पायजामा आदि की गांठ बाँधने की आदत ही कहाँ होगी। अतः वह तो स्वयं ही नग्न वृत्ति को धारण कर लेगा। वस्तुतः श्रमण अतीन्द्रिय आनन्द में इतने ज्यादा मग्न होते हैं कि, बाह्य शरीर की क्या स्थिति है इसका विकल्प ही नहीं रहता अतः शरीर नग्न हो जाता है।
एक वैज्ञानिक आर्केमिडीज का प्रसंग है कि उसे अपने किसी सूत्र की खोज नहीं हो पा रही थी, जिससे दिन-रात वह उसके चिन्तन में रहता था। एक दिन नग्न स्नान करते हुए उसे सूत्र का समाधान मिला, तो वह उसी दशा में अत्यन्त भाव विभोर होकर नग्न ही सड़कों पर दौड़ता हुआ, दूरस्थ राजा के पास पहुँचा। राजा ने कहा कि तुम नग्न हो, पहले कपडे पहिन कर आओ। परन्तु उस वैज्ञानिक ने एक भी नहीं सुनी, और जब अपने खोजे गये सूत्र को बतला दिया तब उसे शरीर के प्रति भी विचार आया। वस्तुतः यही स्थिति नग्न जैन श्रमणों की है। वे अपने द्वारा खोजे गये अपने स्वरूप की सत्ता में इतने लीन रहते हैं, और उसमें इतने भाव विभोर रहते हैं कि बाह्य वस्त्रादिक की चिन्ताएँ-उन्हें पहिनना, साफ करना, आदि से दूर होकर निर्विकार नग्न रहकर विचरण करते हैं। ऐसे निर्विकार पुरुष को देखकर स्त्रियाँ कामासक्त भी नहीं होती हैं। वस्तुतः स्त्रियाँ जब कामी की भापा पहिचानती हैं, तो अकामी की भी भाषा जानकर अकाम भाव को प्राप्त करती हैं।
अतः संक्षिप्त निष्कर्ष में वस्त्र रहित स्वरूप जनता में विश्वास पैदा करने वाला होता है। विषयों से होने वाले शारीरिक सुख में अनादर भाव होता है। सर्वत्र स्वाधीनता रहती है और परीपह को सहना होता है। अतः आचेलक्य वेष ही श्रमण का सर्वश्रेष्ठ लिंग हो सकता है।
24. अस्नान व्रत : __जल से स्नान करने से जलकाय और त्रस जीवों की विराधना होती है, तथा शरीर के प्रति ममत्वभाव भी उत्पन्न होता है, स्नान करने से प्राणिसंयम एवं इन्द्रियसंयम इन दोनों