________________
जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
" अचेलक" शब्द में चेल अर्थात् वस्त्र तो परिग्रह का उपलक्षण मात्र है । अतः अचेलकता का अर्थ तो सर्व परिग्रह का त्याग ही है। वस्त्र मात्र का त्याग करने से और शेष परिग्रह रखने से साधु नहीं होता । अतः यदि आचेलक्य से वस्त्र मात्र का ही त्याग कहा होता तो वस्त्र के सिवाय अन्य परिग्रह को ग्रहण करने वाला साधु होता ? लेकिन ऐसा नहीं होता है । अतः आचेलक्य का अर्थ तो वस्त्र को लेकर सर्व परिग्रह का ही त्याग समझना चाहिए। क्योंकि परिग्रह के लिए ही असि, मसि, कृषि आदि षड् कर्म करके मनुष्य प्राणियों का घात करता है । पराये धन को ग्रहण करने की इच्छा से उसका घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, अपरिमित तृष्णा करता है, और मैथुन करता है। ऐसा करने पर अहिंसा आदि व्रत नहीं हो सकते । किन्तु परिग्रह का त्याग करने पर अहिंसा आदि व्रत स्थिर रहते हैं। 102
124
तत्वार्थ सूत्र में जो बाइस परीषहों की चर्चा में शीत, उष्ण, मच्छर, तृण स्पर्श परीषहा के सहन करने का उल्लेख है वह भी अचेलता को ही सिद्ध करता है । तथा यह सूत्र भी अचेलकता को बतलाता है । - "वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता । 1 सदा भिक्षु अचेल होकर जिनरूप को धारण करता है । ( श्वे. ) दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख और रोमवाले तथा मैथुन से विरक्त साधु को आभूषणों से क्या प्रयोजन है। 104 इस प्रकार अचेलता स्थिति कल्प 1
03
दिगम्बर परम्परा में तो अचेलता की प्रतिष्ठा है ही तथा श्वे. आगमों में भी इसको सम्माननीय स्थान मिला है; परन्तु अचेल साधु श्वे. परम्परा में अभी तक के इतिहास में प्रायः नहीं पाये जाते । हम यह तो पूर्व में ही सिद्ध कर आये हैं कि 24 तीर्थंकरों के द्वारा आचेलक्य का ही उपदेश दिया गया था । यहाँ पर हम आचारांग के लोकसार नामक पाँचवे अध्ययन में चारित्र का वर्णन है, वहाँ के उल्लेख को देखते हैं कि
"लोक में जितने परिग्रह वाले हैं, उनका परिग्रह अल्प हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन, वे सब इन परिग्रह वाले गृहस्थों में ही अन्तर्भूत होते हैं। इन परिग्रह वालों के लिए यह परिग्रह महाभय का कारण है, संसार की दशा जानकर इसे छोड़ो । जो इस परिग्रह को जानता भी नहीं है, उसे परिग्रह से होने वाला महाभय नहीं होता है।
105
इस परिग्रह का यह स्वरूप बतलाते हुए अचेल होने को ही कहा है। आगे छठे अध्ययन के दूसरे उद्देश्य में कहा है कि- "इस प्रकार सुख्यात धर्मवाला और आचार का परिपालक जो मुनि कर्मबन्ध के कारण कर्मो को छोडकर अचेल अर्थात् वस्त्र रहित रहता था, उस भिक्षु को यह चिन्ता नहीं सताती मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, वस्त्र मांगूगा, या जीर्ण वस्त्र को सीने के लिए धागा मांगूगा, आदि-आदि। इस प्रकार भ्रमण करते हुए उस अचेल