________________
मूलगुण
भिक्षु को तृण स्पर्श होता है, ठंड लगती है, गर्मी लगती है, डांस मच्छर काटते हैं । अचेलपने में लाघव मानता हुआ वह भिक्षु परस्पर में अविरुद्ध अनेक प्रकार के परिषहों को सहता है । ऐसा करने पर वह तप को अच्छी तरह धारण करता है। इस प्रकार भगवान महावीर ने भव्य जीवों को जो तृण स्पर्श आदि का सहन करना बतलाया है उसे सहन करो। 106 यद्यपि अचेल का ऐसा विधान होते हुए भी सू. 208-209-220 में अति अपवाद स्थिति में लज्जा सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र ग्रहण बतलाया है, तथापि यहाँ झुकाव तो अचेल की तरफ इस ( श्वे. ) सम्प्रदाय के आदि काल में रहा है ।
125
आगमिक साहित्य के विशिष्ट अभ्यासी पं. वेचरदास जी का कहना है कि " अंगों में दीक्षित होने वाले मुनि के लिए मात्र दो ही उपकरण-एक पात्र दूसरा रजोहरण ग्रहण करने की बात आती है।'
107
मूल आगमिक साहित्य से हटकर उत्तरकालीन श्वेताम्बर साहित्य के आलोचन से ज्ञात होता है कि आचारांग में यद्यपि शीत असहिष्णु और लज्जालु भिक्षुओं के लिए जा वस्त्र और लंगोटी दी गयी थी, उसी ने महावीर के अचेलक धर्म को क्रमशः सचेल बना दिया । कारणवश भी दी गयी सुविधा द्रोपदी का चीर है, जो मात्र बढना ही जानती हैं । ठीक ऐसे ही जब लोगों के मन में यह बात बैठ गयी कि कठोर मार्ग से जिस लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता, उस लक्ष्य तक पहुँचाने को अपेक्षाकृत सुखद मार्ग भी है, तो कौन विवेकी सुखदमार्ग को त्यागकर दुःखद मार्ग से जाना स्वीकार करेगा। क्योंकि मार्ग साध्य नहीं अपितु साधन है। बौद्धों के यहाँ भी साधुओं को दी गयी सुविधा का किस सीमा तक दुरूपयोग किया यह उनके विनय पिटक ग्रन्थ में देखने को मिलता है। वही श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के श्रमणों में हुआ ।
इस प्रकार से जब महावीर के अचेलक धर्म का अनुयायी भी क्रमशः इस प्रकार से अपनी मूल पहिचान को छोड बैठा तो उनके सामने ज्वलन्त प्रश्न था कि फिर किस प्रकार से इन अचेलता के उल्लेखों को धूमिल किया जाए। क्योंकि इन उल्लेखों के रहते वे निःशंक, एवं अपनी प्रवृत्तिओं पर पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं कर सकते थे जैसा कि मैंने पूर्व में संघ- भेद के प्रकरण में लिखा है। अतः ऐसी विषम परिस्थिति में खोजे गये उपायों को श्वे. मुनि कल्याणविजय जी के ही शब्दों में देखें- "आचारांग के उस अचेलकता प्रतिपाद उल्लेख को जिनकल्प प्रतिपादक करार दिया जा चुका था, और उस समय के ग्रन्थकार चोलपट्टक की गणना स्थविर कल्पियों के मूल उपकरणों में कर चुके थे। 108
उस समय तो चोल पट्टक को परिग्रह न मानकर इससे अधिक को ही परिग्रह माना जाता रहा था, किन्तु थोडा सा परिग्रह स्वीकारने का परिणाम यह निकला कि श्रमणों के क्रमशः एक-एक वस्त्र की वृद्धि में एक बहुत बड़ा वस्त्रों का ढेर ही लग गया। इसे ही यदि