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मूलगुण
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निराकरण हेतु ही है।
21. कायोत्सर्ग :
दैवसिक, रात्रिक आदि नियम क्रियाओं में आगमकथित प्रमाण के द्वारा आगम में कथित काल पर जिनेन्द्र देव के गुणों के चिन्तवन से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का आवश्यक है।
___ इन षडावश्यकों का विस्तृत विवेचन चतुर्थ अध्याय में पद-विभागीक समाचार प्रकरण के अन्तर्गत किया जाएगा।
22. केशलोंच:
जैन श्रमण अपने सिर एवं दाढ़ी के बाल स्वयं हाथों से ही लोंच लेते हैं। यह केशलोंच प्रतिक्रमण सहित दिवस में, दो-तीन या चार मास में उत्तम, मध्यम, जघन्य रूप लोंच उपवास पूर्वक ही करते हैं।90 इस केशलोंच का प्रारम्भ दीक्षाकाल से ही किया जाता है। श्वे.के उत्तरा. में कहा है कि "दीक्षा लेने वाले साधक को सर्वप्रथम अपने सभी वस्त्राभूषणों का त्याग करना पड़ता है। तदनन्तर अपने सिर एवं दाढ़ी के बालों को दोनों मुट्ठियों से स्वयं उखाड़ना पड़ता है 1 जिसे केशलोंच कहते हैं। संयोगवश यदि कदाचित् दीक्षार्थी दीक्षा के समय केश रहित हो तो कोई आवश्यक नहीं, क्योंकि 11वीं प्रतिमा वाला श्रावक जिसने 2 दिन पूर्व ही बालों का लोंच किया हो, तो फिर दीक्षा के समय केशलोंच का क्या औचित्य होगा? परन्तु सामान्यतः दीक्षा के समय केश अपने हाथ से उखाड़ने ही होते हैं। कारण कि, इस पर से उसके आध्यात्मिक बल की तथा शरीर के प्रति उपेक्षित भाव की परीक्षा होती है, क्योंकि यदि नवागंतुक श्रमण का आध्यात्मिक वैराग्य कम या दीक्षा की दृढता नहीं हुयी, तो ऐसा वह नहीं कर सकता है, और इससे जो किसी लौकिक कारणवश दीक्षा लेते हैं, उन पर तो कम से कम रोक लग ही जाती है और इससे शिथिलाचार भी पनप नहीं पाता है, यद्यपि यह बात अन्तिम तौर पर नहीं कही जा सकती है।
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सामान्यतः 4 मास तक का केशलोंच जघन्य कहा जाता है, परन्तु ऋषभदेव आदि के उदाहरण भी प्राप्त हैं कि, जिन्होंने छह मास की तपस्या की अवधि में केशलोंच नहीं किया था।पदापुराण में इनकी ध्यान अवस्था का वर्णन करते हुए कहा कि "इन्द्रियों की समान अवस्था धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव छह मास तक कायोत्सर्ग से सुमेरू पर्वत के समान निश्चल खड़े रहे। हवा से उठी हुयी उनकी अस्त- व्यस्त जटाएं ऐसी जान पड़ती थी, मानों समीचीन ध्यानरूपी अग्नि से जलते हुए कर्म के धूम की पंक्तियां हों। 2 श्रमण बाहुबली का स्वरूप भी इसी प्रकार का था।देखें - कन्धों पर्यन्त लटकती हुयी केशरूपी लताओं को धारण करने वाले वे बाहुबली मुनिराज अनेक काले सर्यों के समूह को धारण करने वाले हरिचन्दन वृक्ष का अनुकरण कर रहे थे। 3 तपस्या की ऐसी स्थिति होते हुए