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मूलगुण
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स्वीकारना, वस्तुतः इन दोनों की पूज्यता में अथवा ऊँच-नीच का भेद करना एक मानसिक क्षुद्रता और एक अपराध है, क्योंकि यदि चक्रवर्ती ने छह खण्ड की विभूति और उससे अपने को अधिक मानना छोड़ा अर्थात् परवस्तु से अपने व्यक्तित्व की पहिचान का त्याग किया तो निर्धन व्यक्ति ने भी छह खण्ड के न होने पर उत्पन्न हुयी अपनी उस हीन भावना को छोड़ा। अतः दोनों ने ही छह खण्ड को त्यागा है। इसलिए दोनों ही समकोटि के हैं। परन्तु देखने की बात तो यह है कि उन्होंने ग्रहण क्या किया। यदि दोनों ने अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान कषायों के अभाव में आत्मतत्व को ग्रहण किया है, तो वे समान हैं। यही इन्द्रियजय है और यही यथार्थ श्रामण्य दशा है।
यहाँ पंचेन्द्रिय निरोध का भेद रूप से स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।
11. स्पर्शनइन्द्रिय निरोध :
जीव और अजीव से उत्पन्न हुए एवं कठोर, कोमल आदि आठ भेदों से युक्त सुख और दुःख रूप स्पर्श में मोह रागादि नहीं करना स्पर्शनेन्द्रिय निरोध है।
12. रसना-इन्द्रिय निरोध :
अशन आदि से चार भेद रूप, पंच रसयुक्त, प्रासुक, निर्दोष, पर के द्वारा दिये गये रुचिकर अथवा अरुचिकर आहार में लम्पटता का नहीं होना रसना इन्द्रिय निरोध है।
13. घ्राणेन्द्रिय निरोध :
जीव और अजीव स्वरूप सुख और दुःख रूप प्राकृतिक तथा पर निमित्तक गन्ध में जो राग द्वेष का नहीं करना है वह श्रमण का घ्राण- इन्द्रिय निरोध व्रत है।
14. चक्षु-इन्द्रिय निरोध :
सचेतन और अचेतन पदार्थों की क्रिया, आकार और वर्ण के भेदों में मुनि के जो राग-द्वेष आदि संग का त्याग है वह चक्षु इन्द्रिय निरोध व्रत है ।।
15. कर्ण इन्द्रिय निरोध :
षडज, श्रृषभ, गान्धार आदि शब्द और वीणा आदि अजीव से उत्पन्न हुए शब्द य सभी रागादि के निमित्त हैं, इनका उपभोग नहीं करना कर्णेन्द्रिय निरोध व्रत है।
षडावश्यक:
रोग आदि से पीड़ित होने पर भी इन्द्रियों के अधीन न होकर मुनि के द्वारा जो दिन-रात के कर्तव्य किये जाते हैं, उन्हें आवश्यक कहते हैं। जो वश्य अर्थात् इन्द्रियों के