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मूलगुण
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चलन रुप" शब्द का प्रयोग अत्यन्त मार्मिक हुआ है। हम दैनिक व्यवहार में एक दूसरों के स्वास्थ्य के बारे में पूछते हैं कि आपका स्वास्थ्य कैसा है ? इस लोक व्यवहार में भी जैन दर्शन ने हमारे दैनिक जीवन में भी अति आध्यात्मिकता का स्वर फूंका है।
स्वस्थस्य भावः स्वास्थ्यः इति अर्थात् जिसमें स्वस्थता अर्थात् आत्मिक स्थिरता-राग द्वेषादि का अभाव हो उसे स्वास्थ्य कहते हैं। दैनिक व्यवहार में स्वास्थ्य शब्द का प्रचलन इसलिए हुआ कि, हमारी भारतीय संस्कृति जैन संस्कति से अत्यधिक प्रभावित रही है। जैन संस्कृति अध्यात्म प्रधान रही है जिससे भारत देश आध्यात्मिक प्रधान हुआ। सन्तों की साधनास्थली भारत देश होने की वजह से पूर्वकाल में परस्पर श्रावकगण कुशलक्षेम के रूप में पूँछा करते थे कि इस संसार में रहते हुए भी आपकी स्वरुप स्थिरता के प्रति उदासीनता तो नहीं है ? अतः परस्पर में आत्म परक भाव में स्वास्थ्य शब्द का प्रयोग करते थे। यह मूलतः संस्कृत शब्द है। संस्कृत देववाणी है अर्थात् देवलोग, सज्जन लोग जिस भाषा का प्रयोग करें उसे देववाणी कहते हैं। सज्जन पुरुष विषय-कषाय की वार्ता न करके धार्मिक वार्ता ही श्रेष्ठ समझते हैं, तथा दूसरी तरफ़ विषय-कषायप्रधान धर्म मुस्लिम में इस लोक व्यवहार को बाह्य विषय की प्रधानता लिय हुए "तनदुरूस्थ" शब्द का
योग करते हैं। उनके यहाँ शरीर की शाश्वत मान्यता की वजह से. शरीर की कशलता पूछने का भाव निहित रहता है। भाषा-विज्ञान का यह नियम है कि व्यक्ति की आन्तरिक रुचि की छाप व्यक्ति के दैनिक व्यवहार एवं उसके शब्द संयोजन पर स्पष्ट रूप से पड़ती है। व्यक्ति उन्हीं शब्दों का अधिकांशतः प्रयोग करता है, जैसी उसकी मानसिक प्रवृत्ति रहती है। कठोर व्यक्ति कठोर शब्दों का प्रयोग एवं सरल व्यक्ति ऋजु शब्दों का प्रयोग अधिकांशतः करता है। अतः स्वस्थ भाव चलन रूप में स्वरूप की जितनी अस्थिरता होगी, उतने अंशों में राग होगा, एवं जितने अंशों में राग उत्पन्न होगा उतने अंशों में ही पापों का बंध होगा, न कि पैरों के नीचे जीव के मर जाने मात्र से पाप बंध जाता है। यह जैनधर्म का अत्यन्त मार्मिक सिद्धान्त है। इसी कारण जयसेनाचार्य ने "निश्चयहिंसारुपोऽन्तरंगच्छेदःसर्वथा प्रतिषेध्यः"60 जैसे भाव व्यक्त किये हैं।
___ पाँच महाव्रतों के विस्तृत स्वरूप का वर्णन किया जा चुका है। अब उनके महत्व का समर्थन पूर्वक उनकी रक्षा के लिए रात्रिभोजन विरति नामक छठे अणुव्रत का कथन करते हुए यह बताते हैं कि, उत्तरोत्तर अच्छी तरह किये गये अभ्यास के द्वारा इन व्रतों के सम्पूर्ण होने पर निर्वाण रूप फल की प्राप्ति होती है।1
रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग रात्रिभोजन निवृत्ति है एवं उसे अणुव्रत कहा है। क्योंकि जैसे हिंसा आदि पापों का सर्वथा त्याग किया जाता है उस तरह भोजन का सर्वथा त्याग नहीं किया जाता, किन्तु केवल रात्रि में ही भोजन का त्याग किया जाता है। दिन में तो समय पर भोजन किया जाता है, अतः उसे अणुव्रत कहा है, अर्थात् भोजन क्रिया