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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
की आंशिकतः निवृत्ति, अतः यह वस्तुतः अणुव्रत रूप महाव्रत है, एवं गृहस्थों के लिए अणुव्रत रूप अणुव्रत है।
भगवती आराधना में जब इस विषय से सम्बन्धित मन्तव्य देखते है62 तो वहाँ कहा है कि "यदि मुनि रात्रि में भिक्षा के लिए विचरण करता है तो स जीवों और स्थावर जीवों का घात करता है। रात्रि के समय वह दाता के आने का मार्ग, उसके अन्नादि रखने का स्थान, अपने खड़े होने के स्थान, उच्छिष्ट भोजन के गिरने का स्थान अथवा दिया जाने वाला आहार योग्य है या नहीं यह सब वह कैसे जान सकता है ? जो सूक्ष्मजीव दिन में भी कठिनता से देखे जा सकते हैं, उन्हें रात्रि में कैसे देखकर उनका बचाव कर सकता है? रात्रि में आहार के पात्र वगैरह का शोधन कैसे हो सकता है? सम्यक् रीति से देखे बिना ही एषणा-समिति की आलोचना करने पर साधु का सत्यव्रत कैसे रह सकता है? स्वामी के सोने पर उसके द्वारा नहीं दिया गया आहार ग्रहण करने से चोरी का दोष लगता है। दिन में किसी पात्र में आहार लेकर रात्रि में खाने से अपरिग्रह व्रत का लोप होता है। किन्तु रात्रिभोजन का ही त्याग करने से पांचों ही व्रत परिपूर्ण होते हैं। अतः पाँचों व्रत की रक्षा के लिए रात्रिभोजन निवृत्ति भी महत्वपूर्ण व्रत है।
तत्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय के प्रथम सूत्र में हिंसा आदि पाँच पापों के त्याग को व्रत कहा है। उसकी सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थवार्तिक आदि टीकाओं में यह शंका की गयी है कि रात्रि भोजन विरमण नाम का छठा अणुव्रत है। उसको भी यहाँ कहना चाहिए ? इसका समाधान यह किया गया कि उसका अन्तर्भाव अहिंसाव्रत की आलोकितपान भोजन भावना में होता है। अतः उसे नहीं कहा है।
तत्वार्थाधिगम भाष्य (श्वे. ) में इसकी कोई चर्चा नहीं है। किन्तु सिद्धसेन गणि ने उसकी टीका में इस चर्चा को उठाया है, जो सर्वार्थसिद्धि व तत्वार्थवार्तिक का ही प्रभाव प्रतीत होता है। उसमें कहा है जैसे-असत्य आदि का त्याग अहिंसाव्रत के परिपालन के लिए होने से मूलगुण है, उसी तरह रात्रिभोजन विरति भी मूलगुण होना चाहिए ? इसका उत्तर है कि महाव्रतधारी के लिए ही वह मूलगुण है, क्योंकि उसके बिना मूलगुण पूर्ण नहीं हो सकते। अतः अहिंसा आदि मूलगुणों के ग्रहण में उसका ग्रहण आ जाता है। तथा जैसे रात्रिभोजन त्याग सब व्रतों का उपकारी है, वैसे उपवास आदि उपकारी नहीं है। अतः महाव्रतों का वह मूलगुण है, शेष उत्तरगुण है, किन्तु अणुव्रतधारी का रात्रिभोजन त्याग उत्तरगुण है, क्योंकि उसमें आहार का त्याग होता है। अथवा वह उपवास की ही तरह तप है। श्वेताम्बर आगम साहित्य में भी पाँच महाव्रतों के साथ छठे रात्रिभोजन निवृत्ति का निर्देश पाया जाता है। किन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं बतलायी है।