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मूलगुण
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अहिंसा रूप अथवा हिंसा विरति आदि पाँच रूप सम्यक् चारित्र सावद्ययोग से विरत साधु का अथवा योग के लिए प्रयत्नशील साधु का शरीर है। उसे उत्पन्न करने के लिए, रक्षण करने के लिए, और निर्मल करने के लिए माता के तुल्य होने से आगम के ज्ञाता पुरुष तीन गुप्तिओं और पाँच समितियों को माता मानते हैं। इसलिए व्रतों का पालन करने वालों को इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए इन आठ प्रवचन माताओं की आराधना का निर्देश प्राप्त है। 63
जैसे माताएं पुत्रों के शरीर को जन्म देती हैं, उनका पालन करती हैं, रांगादि होने पर शोधन करती हैं उसी तरह गुप्ति और समितियाँ मुनि के सम्यक् चारित्र रूप शरीर का जन्म देती हैं, पालन करती हैं और शुद्ध करती हैं। गुप्ति और समितियों के बिना सम्यक् चारित्र की उत्पत्ति, रक्षा और निर्दोषता सम्भव नहीं है। इसी कारण आगम में इन्हें रत्नत्रय रूप प्रवचन की माता कहा है। अतः सामायिक या छेदोपस्थापना चारित्र के आराधक साधु को इनका पालन सावधानीपूर्वक अवश्य करना चाहिए। इनमें प्रमादी होने से महाव्रत की रक्षा की बात तो दूर उनका जन्म ही संभव नहीं है ।
गुप्ति का सामान्य लक्षण
"गुपूरक्षणे" अर्थ में गुप्ति शब्द गोप् धातु से बना है जिसका अर्थ रक्षण है, अर्थात् जिससे संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा होती है उसे गुप्ति कहते हैं । इसी अर्थ को दृष्टि में रखते हुए पं. आशाधर ने गुप्ति का सामान्य लक्षण दिया है कि " लोगों के द्वारा की जाने वाली पूजा, लाभ और ख्याति की इच्छा न करने वाले" साधु को सम्यग् दर्शन आदि रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा को मिथ्यादर्शन आदि से रक्षा करने के लिए पाप योगो का निग्रह करना चाहिए | 64 जैसे राजा रत्नों से अर्थात् अपनी-अपनी जाति के उत्कृष्ट पदार्थों से शोभायमान नगर की प्राकार, खाई और उसके बाहर की कच्ची चारदीवारी से रक्षा करते हैं, उसी तरह व्रती को सम्यग्दर्शन आदि रत्नों से शोभित अपनी आत्मा की रत्नत्रय को नष्ट करने वाले उपायों से मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति के द्वारा रक्षा करनी चाहिए 165
मनोगुप्ति आदि का विशेष लक्षण :
रागद्वेष और मोह के त्यागरूप अथवा आगम का विनयपूर्वक अभ्यास और धर्म तथा शुक्लध्यान रूप मनोगुप्ति है । कठोर आदि वचनों का त्याग वचनगुप्ति है अथवा मौनरूप वचन गुप्ति है। शरीर से ममत्व का त्याग रूप स्वभाव वाली अथवा हिंसा, मैथुन और चोरी से निवृत्ति रूप स्वभाव सर्वचेष्टाओं से निवृत्ति रूप वाली काय गुप्ति है । समस्त हेय-उपादेय को तत्व रूप से देखकर जीवन मरण आदि में समबुद्धि रखने वाला साधु इन गुप्तिओं का पालन करते हुए ज्ञानावरण आदि कर्मों में लिप्त नहीं होता । 66