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मूलगुण
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सखी कहा है वहाँ गुप्तियों को मोक्षमार्ग की देवी कहा है। इस देवी के वर की रक्षिका है "चेष्टा"। जैसे द्वार रक्षिका अपने स्वामी की अवज्ञा करने वाले को वहाँ से निकाल देती है, वैसे ही जो मुनि शारीरिक चेष्टा करना चाहता है वह गुप्ति के द्वार से हट जाता है, किन्तु श्रमण मोक्ष की देवी गुप्ति की आराधना नहीं छोड़ता। अतः शारीरिक चेष्टा करते हुए भी उसे समितियों का आलम्बन लेना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसे पुनः गुप्तियों के पालन का अवसर मिलता है। यदि वह चेष्टा करते हुए भी समितियों का पालन नहीं करता तो वह गुप्तियों का पालन नहीं कर सकता और तब उसे मोक्ष तो दूर मोक्षमार्ग की भी प्राप्ति सम्भव नहीं है। कहा भी है-"कर्मों के आने के द्वार तो बन्द करने में लीन साधु के तीन गुप्तियाँ कही हैं, और शारीरिक चेष्टा करने वाले मुनि के पाँच समितियाँ बतलायी
पंच समिति
समिति शब्द सम् और इति के मेल से बनता है। "सम" अर्थात सम्यक् इति अर्थात् गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । आगम में कहे हुए क्रम के अनुसार दया भाव पूर्वक गमनागमन करना समिति है। साधु को जीवनयात्रा के लिए पाँच समिति आवश्यक रूप से करनी होती है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, बोलना, भोजन, पिच्छि आदि का ग्रहण-स्थापन, और मलमूत्र का त्याग। इस प्रकार ईर्या- समिति, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण एवं उत्सर्ग के भेद से समिति पाँच प्रकार की होती है।1
6. ईर्या समिति : __प्रायश्चित्त आदि शास्त्रों के अर्थ को जानने वाला जो मुनि आत्मकल्याण के साधन सम्यग्दर्शन आदि और उनके सहायक अपूर्व चैत्यालय, समीचीन उपाध्याय आदि की प्राप्ति के लिए अपने स्थान से अन्य स्थान को जाना चाहता है वह मनुष्य, हाथी, घोड़े आदि के द्वारा अच्छी तरह से रौंदे हुए और सूर्य की किरणों से प्रासुक मार्ग के अन्तर्मुहूर्त बाद आगे चार हाथ जमीन देखकर दिन में गमन करता है, तथा दया भाव से प्राणियों की रक्षा करने के लिए सावधानी पूर्वक मध्यम गाते से गमन करता है उस मुनि को ईर्या समिति होती है। 2 तथा जिसमें ईर्या समिति का पालन न हो सके ऐसे वाहन, मोटर, पालकी आदि का जीवन पर्यन्त उपयोग नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने पर ईर्या समिति का प्रयोग नहीं होता है, तथा परिग्रह का प्रसंग होने से श्रामण्य भंग होता है। आचार्य शिवार्य ने कहा कि "जिसकी चक्षु दुर्बल हो अथवा जिसके श्रोत्र दुर्बल हो, जो जंघाबल से हीन हो अथवा विहार करने में सक्षम न हो उसे भक्त प्रत्याख्यान (समाधिमरण ) करना चाहिए। इससे यह फलित होता है कि जैन श्रमण मृत्युपर्यन्त चश्मा, कान के उपकरण एवं वाहन आदि का उपयोग नहीं कर सकते हैं। जबकि वर्तमान में चश्मा, पालकी आदि के उपयोग का प्रचलन है, जो जैनधर्म सम्मत नहीं है।