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श्रमण और उसका धर्म
अट्ठाइस मूलगुणों का निष्कलंक पालन जैन श्रमण का बाह्य लक्षण है। और यही श्रमण की परीक्षा का माध्यम भी है। चूंकि उसके अन्तरंग मूल अर्थात् आत्मा की स्वच्छता को सामान्यतः जाना नहीं जा सकता है। अतः अट्ठाइस मूलगुण रूप व्यावहारिक गुणों को ही प्रमुखता दी है। चूंकि वन्द्य-वंद्यक भाव भी यथार्थ में व्यवहार किया है। निश्चय नय से तो अपनी आत्मा ही वन्ध है और वही वंद्यक भी, इसी कारण श्रमण के बाह्य गुणों को ही पूज्य माना गया है। तभी तो मूलाचार की टीका करते हुए वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने पृथक रूप से मूलगुणों को भी नमस्कार किया है - देखें
"मूलगुण संयतानामयं नमस्कारो मूलगुणान् सुविशुद्धान् संयतांश्च वन्दित्वा मूलगुणान् कीर्तयिष्यामि।"4
अर्थात् मूलगुणों और सुविशुद्ध अर्थात् निर्मल चारित्रधारी संयतों को नमस्कार करके मैं मूलगुणों को कहूँगा।
यहाँ पर मूलगुणों एवं सुविशुद्ध चारित्र को अलग-अलग नमस्कार करने का कारण यह है कि, श्रमण का मूल स्वरूप तो सप्तम गुणस्थान की दशा से युक्त भाव है, जो कि शुद्धपरिणति में होता है - यही सुविशुद्ध चारित्र है। परन्तु जब इन भावों से च्युत होकर विकल्प की भूमिका रूप छठवें गुणस्थान में आता है, तब उसे 28 प्रकार तक के भाव हो सकते हैं, जो अट्ठाइस मूलगुण कहलाते हैं। टीकाकार कहते हैं कि ये भाव भी चूंकि शुद्ध परिणति के साथ होते हैं, अतः ये भी पूज्य हैं। इस कारण दोनों भावों को शुभोपयोग एवं . शुद्धोपयोग को नमस्कार किया है।
__ जैनधर्म में अन्तरंग शुद्धता एवं नग्नता को मुक्ति का कारण माना है। और वह आन्तरिक शुद्धता सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की लीनता है और मोह-राग-द्वेष से रिक्तता ही उसकी नग्नता है। उपर्युक्त निश्चय- व्यवहार मूलगुणों की चर्चा करते हुए जयसेनाचार्य ने कहा है कि
"तथाहि-निश्चयेन मूलमात्मा, तस्य केवल ज्ञानाद्यनन्तगुण मूलगुणास्ते च निर्विकल्पसमाधिरूपेण परमसामायिकाभिधानेन निश्चयेकवतेन मोक्षबीजभूतेन मोक्षे जाते सति सर्वे प्रकटा भवन्ति । तेन कारणेन तदेव सामायिकं मूलगुण व्यक्तिकारणत्वात् निश्चयमूलगुणो भवति। यदा पुनर्निविकल्पसमाधौ समर्थो न भवत्ययं जीवस्तदा यथा कोऽपि सुवर्णार्थी पुरुषः सुवर्णमलभमानस्तत्पर्यायानपि कुण्डलादीन् गृह्णाति, न च सर्वथा त्यागं करोति, तथायं जीवोऽपि निश्चय मूलगुणभिधानपरमसमाध्यभावे छेदोपस्थानं चारित्रं गृहणति। छेदे सत्युपस्थानं छेदोपस्थापनम्। अथवा छेदेन व्रतभेदेनोपस्थापनं छेदोपस्थापनं । तच्च संक्षेपेण पंचमहाव्रतरूपं भवति। तेषां व्रतानां च रक्षणार्थं पंचसमित्यादिभेदेन पुनरष्टाविंशति