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मूलगुण
101 "कुशलेष्वानादरः प्रमादः17 अर्थात् कुशल कार्यों में अनादर का भाव प्रमाद है। कुशल अर्थात् "कौ पृथिव्याम् शलः ब्रह्मः प्रभु यस्मिन् सः कुशलः" अर्थात् जो अपने ब्रह्मस्वरूप आत्मा की प्रभुता में व्याप्त है वह कुशल है और यदि स्पष्ट कहें तो जो परम सामायिक अवस्था में है वही कुशल है तथा इन कुशल कार्यों के प्रति अनादर रूप प्रवृत्ति में स्थित दशा को प्रमाद दशा कहते हैं। चूंकि इस अवस्था में स्वरूपस्थ अवस्था का घात है। अतः प्रमाद होने से हिंसा कही गयी है। निश्चय नय से तो श्रमण की सामायिक अवस्था ही अहिंसा महाव्रत है; परन्तु इस दशा में स्थित न होने पर इस दशा की ओर सन्मुखता लिये हुए भावयुक्त परजीवों की रक्षा रूप भाव को व्यवहार से अहिंसामहाव्रत कहा है। जो कि व्यवहार से कहे गये मूलगुण का उद्देश्य है, चूंकि यह व्रत शेष गुणों का आधारभूत है, अतः इसका उल्लेख प्रथम किया गया है।
इस अहिंसा महाव्रत में, काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि इनमें सभी जीवों को जानकर के कायोत्सर्ग आदि में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये काय हैं, क्योंकि पृथ्वीकायिक जलकायिक, आदि जीव इन कायों में रहते हैं। अतः जब महाव्रती श्रमण पृथ्वी काय से जल काय में सम्पर्क करेगा तो उसके पूर्व वह अपनी पिच्छि से शरीर का परिमार्जन करेगा, छाया से धुप में आने के सम्पर्क से पूर्व वह अपने शरीर का परिमार्जन अवश्य करता है. क्योंकि छाया के समय जो जीवाणु शरीर से सम्पर्क रखे हुए है, धूप के समय वे अवश्य मरण करेंगे। अतः उन जीवों के प्रति भी दया भाव एवं विवेक के वश होकर धूप में प्रवेश के पूर्व सम्पूर्ण शरीर को पिच्छि से परिमार्जित करते हैं। इसी प्रकार से धुप से छाया में जाने पर विधान है। उसकी ऐसी वृत्ति के अभाव में इस व्रत में दोष अवश्यम्भावी है।
स्पर्शन, रसना घ्राण, चक्षु और क्षोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ है। एक स्पर्शनन्द्रिय जिनके है, वे जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं। स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ जिनके हैं वे द्विन्द्रिय कहलाते हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन जिनके हों वे त्रिन्द्रिय हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ जिनके हैं वे चतुरिन्द्रिय हैं, तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पंच इन्द्रियों से युक्त को पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं।
गुण शब्द से गुणस्थान का ग्रहण होता है। ये गुणस्थान चौदह हैं। जिनके द्वारा जीव खोजे जाते हैं उन्हें मार्गणा कहते हैं उनके चौदह भेद हैं। जाति के भेद को कुल कहते हैं। बड, पलाश, शंख, सीप, खटमल, पतंग मनुष्य इत्यादि जातियों के भेद हैं। सीमन्त, पटल आदि की अपेक्षा नारकियों में भेद हैं। भवनवासी आदि से देवों में भेद हैं। ये भेद ही जाति, कुल, नाम से कहे जाते हैं। शरीर के धारण को आयु कहते हैं। यह आयु देव, मनुष्य तिर्यंच