________________
मूलगुण
103
जगत में लोग क्रोध से, या लोभ में या भयभीत होकर या हँसी-मजाक में झूठ बोलते हैं। किसी भी व्यक्ति के द्वारा बुद्धिपूर्वक झूठ बोलने के ये 4 कारण होते हैं, और यदि चारों बातें न भी हों तो उस विषय की अज्ञानता के कारण व्यक्ति झूठ बोलता है । अतः इन पंच कारणों के त्याग करने को कहा गया है। इसीलिए श्रमण को शास्त्राभ्यास में अनुरक्त होने को कहा गया हैं; ताकि उसकी अज्ञानता का नाश हो । शास्त्रों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रयोजन साधने के लिए अनेक प्रकार का उपदेश दिया है, उसे यदि सम्यग्ज्ञान के द्वारा यथार्थ प्रयोजनपूर्वक पहिचाने तो जीव के हित-अहित का निर्णय हो । अतः " स्यात् " पद की सापेक्षता सहित जो तत्व का निर्णय करता है, आगम के विपरीत अर्थ नहीं करता है वही सच्चा श्रमण है।
श्वेताम्बरीय आगम आचारांग सूत्र में भी इसी प्रकार की पंच भावनाएं हैं
( 1 ) वक्तव्यानुरूप चिन्तन पूर्वक वचन बोले ( 2 ) क्रांध का परित्याग करे, ( 3 ) लाभ का परित्याग करे, ( 4 ) भय का परित्याग करे (5) हास्य का परित्याग करे | 23 चूर्णिकार ने प्राचीन परम्परा का कुछ भिन्न एवं भिन्न क्रम का, किन्तु इसी आशय का पाठ प्रस्तुत किया है। तदनुसार संक्षेप में पंच भावनाएं निम्नतः है । ( 1 ) हास्य का परित्याग (2) अनुरूप चिन्तन पूर्वक भाषण (3) क्रोध का परित्याग (4) लोभ का परित्याग ( 5 ) भय का परित्याग 124
3. अचौर्य महाव्रत :
ग्राम, नगर, मार्ग आदि में किसी की गिरी हुयी, भूली हुयी, रखी हुयी वस्तु को स्वयं नहीं लेना, 25 दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य 26 पुस्तक, आदि को भी न लेना तथा दूसरों के द्वारा बिना दी गयी ऐसी योग्य वस्तु को भी न लेना, चाहे वह योग्य वस्तु शिष्य के रूप में ही क्यों न हो। क्योंकि श्रमणों में प्रमुख आचार्य का यह कर्तव्य है कि यदि कोई श्रमण किसी संघ से आता है, और वह आचार्य उस नवागत श्रमण को उसके आचार्य की आज्ञा के बिना संघ में प्रवेश दे देता है तो आचार्य को शिष्यादान के रूप में चोरी जैसा महान् पाप लगता है । इस विषय में मूलाचार की आचारवृति की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं " तथा पर के द्रव्यों को ( क्षेत्र वास्तु - उपकरण, छात्र) बिना दिये हुए नहीं लेवें पर से बिना पूछे हुए किसी वस्तु को ग्रहण का त्याग करना अदत्त परिवर्जन व्रत है । और यह भी है कि अपने आत्मद्रव्य को छोडकर "परद्रव्य को अपने नहीं करने रूप जो अभिप्राय है वह अचौर्य नांम का तृतीय व्रत है। 27
धर्मसंग्रह (श्वे. ) की टीका में अदत्त के चार भेंट किये हैं- स्वामी के द्वारा अदत्त, जीव के द्वारा अदत्त, तीर्थंकर के द्वारा अदत्त और गुरु के द्वारा अदत्त । जो स्वामी के द्वारा नहीं दिया गया वह पहला अदत्त है जैसे-तृण, काष्ठ, वगैरह । जो स्वामी के द्वारा दिया गया भी हो परन्तु जीव के द्वारा न दिया गया हो वह दूसरा अदत्त है जैसे- पुत्र की इच्छा