________________
जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
और पशु गति में स्थिति रहने के लिए कारण है । जीव की उत्पत्ति के स्थान को योनि कहते हैं। इसके सचित्त, अचित्त, मिश्र, शीत, उष्ण, मिश्र और संवृत, विवृत और मिश्र ऐसे नव भेद हैं। इन काय इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु, और योनियों में सभी जीवों को जानकर अथवा इनको और सभी जीवों के स्वरूप को जानकर हिंसा से विरत होता है। 1
8
102
जो उपर्युक्त काय आदि के आश्रित रहने वाले जीवों के भेद-प्रभेदों को जानकर पुनः गमन - आगमन, भोजन, शरीर का हिलाना-डुलाना, संकोचना, हाथ-पैर आदि फैलाना इत्यादि प्रसंगों में जीवों के वध से उनको पीडा देने या कुचल देने आदि से जो घात होता है। वह हिंसा है । उसका त्याग ही अहिंसा महाव्रत है; अथवा कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं के प्रसंग में सावधानी रखते हुए जीवों के वध का परिहार करना अहिंसा व्रत महाव्रत है। 19 इस महाव्रत में हिंसा का मन-वचन काय से पूर्णतया त्याग कर देना होता है। तथा इसमें सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह का त्याग हो जाता है ।
वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान- निक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन इन पाँच भावनाओं से बनाया गया अहिंसाव्रत स्थिर होकर उत्कृष्ट माहात्म्य की प्राप्त कराता है।20 इन भावनाओं से अहिंसा की पुष्टि होती है, क्योंकि वचन का निरोध करने से कठोर आदि से होने वाली हिंसा नहीं होती। मन का निरोध होने से दुर्विचार से होने वाली हिंसा नहीं होती । ईर्या समिति पूर्वक चलने से मार्ग में चलने से होने वाली हिंसा नहीं होती । देखकर उपकरणों को ग्रहण करने और देखकर रखने से उठाने रखने में होने वाली हिंसा नहीं होती । देखकर दिन में खानपान करने से भोजन सम्बन्धी हिंसा का बचाव होता है । श्रमण को इतनी क्रियाएँ तो करनी ही होती है। तभी अहिंसा का पालन पूर्णतः सम्भव है ।
2. सत्य महाव्रत :
राग-द्वेष-मोह के कारणभूत असत्य वचन तथा परपीडा कारक सत्य वचन को गौण कर शास्त्रानुसार उत्तम वचन बोलना सत्य महाव्रत है । सत्य महाव्रतधारी मुनि गर्हित, सावद्य और अप्रिय वचनों से भी दूर रहता है। वह कभी भी कर्कश, निष्ठुर आदि भाषा का प्रयोग नहीं करता जिससे किसी को दुःख हो । 21 अनेकान्तात्मक रूप वस्तु का निर्णय करके स्याद्वाद और नयवाद का प्रयोग इसी व्रत के अन्तर्गत आता है।
तत्वार्थ सूत्र में इस महाव्रत के पालने में सहयोगी पंचभावनाओं को बतलाया I "क्रोध लोभ भीरुत्व- हास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीची भाषणं च पंच" 22 अर्थात् क्रोध का त्याग करना, लोभ का त्याग करना, भय का त्याग करना और शास्त्र की आज्ञानुसार निर्दोप वचन बोलना ये पाँच सत्यव्रत की भावनाएं हैं।