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जैन भ्रमण : स्वरूप और समीक्षा
आदि की इच्छा रखने वाले साधु का यह प्रयत्न मूलघातक होगा। कारण कि, उत्तरगुणों में दृढता इन मूलगुणों के निमित्त से ही प्राप्त होती है। अतः यह उसका प्रयत्न इस प्रकार का है जिस प्रकार कि युद्ध में कोई मूर्ख सुभट अपने शिर का छेदन को उद्यत शत्रु के अनुपम प्रहार की परवाह न करके केवल अंगुलि के अग्रभाव को खण्डित करने वाले प्रहार से ही अपनी रक्षा का प्रयत्न करता है। 11
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प्रवचनसार गा. 208-209 की टीका में जयसेनाचार्य ने 28 मूलगुणों को संक्षिप्त करके कहा कि "पंचमहाव्रत" ही संक्षिप्त से मूलगुण हैं; परन्तु पंच महाव्रत की रक्षा करने के लिए अर्थात् निरतिचार पालन के लिए पाँच समिति आदि के भेद से 28 मूलगुण होते #11 12 इन मूलगुणों की रक्षा के लिए 22 परीषह एवं 12 प्रकार का अन्तरंग - वहिरंग तप इस प्रकार उत्तरगुणों को पालनार्थ बतलाया है, और इन 34 उत्तरगुणों की रक्षा के लिए देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं अचेतन कृत 4 प्रकार के उपसर्गों को जीतना एवं बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने को कहा गया है 13 इतने गुणों की पालना होने पर ही 28 मूलगुण एवं संक्षिप्त रूप से पंचमहाव्रत रूप गुणों का निरतिचार पालन श्रमण के संभव है |
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि वस्तुतः पाँच महाव्रत में ही शेष सभी गुण समाहित क्योंकि श्रमण के मुख्यव्रतों को महाव्रत कहा गया है। यहाँ पर "महान् " शब्द का "प्रधान" अर्थ है और व्रत शब्द, सावद्यनिवृत्ति रूप मोक्ष प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण में आता है, अर्थात् मोक्ष के लिए जो हिंसादि पापों का त्याग किया जाता है, इस कारण भी इन्हें महाव्रत कहते हैं। महाव्रत शब्द की उत्पत्ति में यह तथ्य भी है कि, इन व्रतों में स्थूल और सूक्ष्म भेदरूप सभी प्रकार की हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का पूर्ण त्याग होता है । इस कारण भी इन्हें महाव्रत कहते हैं। योगदर्शन में भी इन महाव्रतों को स्वीकारते हुए कहा कि ये महाव्रत जाति, देश, काल और समय के बन्धन से रहित सार्वभौम सार्वविषयक होते हैं। 14 स्वतः ही मोक्ष को प्राप्त कराने वाले होने से ये महान् व्रत महाव्रत कहलाते हैं। ये महाव्रत प्राणियों की हिंसा की निवृत्ति में कारणभूत हैं।'
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श्रमण के उपर्युक्त संक्षिप्ततः पंचमहाव्रत एवं विस्तार से 28 मूलगुणों पर जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में ही विस्तृत विचार किया जा रहा है।
पंच महाव्रत
(1) अहिंसा महाव्रत
पंच महाव्रतों में प्रथम महाव्रत अहिंसा महाव्रत है । द्रव्य और भाव के भेद से होने वाली दो प्रकार की हिंसा में प्रमादमूल है, क्योंकि प्रमाद मूलक हिंसा को ही जैनधर्म में मुख्यतः हिंसा स्वीकृत किया है। 16 प्रमाद का स्वरूप आ. पूज्यपाद ने बतलाते हुए कहा कि