________________
104
जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
के बिना माता-पिता के द्वारा अपना पुत्र, गुरू को अर्पित करना । तीर्थंकर के द्वारा निषिद्ध वस्तु को ग्रहण करना तीसरा अदत्त है। और स्वामी के द्वारा दिये जाने पर भी गुरु की अनुज्ञा के बिना लेना चतुर्थ अदत्त है। चारों ही प्रकार का अदत्त साधु के लिए त्याज्य 28
इस व्रत की स्थिरता के लिए ग्रन्थों में पाँच प्रकार की भावनाओं के माध्यम से स्थिरता का विधान है 29
" अचौर्यव्रती साधु को निर्जन गुफा वगैरह में अथवा दूसरों के द्वारा छोडे गये स्थान में बसना चाहिए । भिक्षाओं के समूह को अथवा भिक्षा में प्राप्त द्रव्य को भैक्ष कहते हैं उसकी शुद्धि के लिए सावधान रहना चाहिए अर्थात् पिण्ड शुद्धि नामक अधिकार में कहे गये दोषों से बचना चाहिए। साधर्मी जनों के साथ "यह मेरा है, यह तेरा है" इस तरह का विवाद नहीं करना चाहिए। तथा अन्य श्रावक वगैरह को अभ्यर्थना से रोकना नहीं चाहिए | 30 इन्हीं भावनाओं को प्रकारांतर से भी कहा गया है।
"योग्य को ग्रहण करने वाला, स्वामी के द्वारा अनुज्ञात को ग्रहण करने वाला, गृहीत में भी असक्ति को छोड़ने वाला तथा दिये हुए में से भी प्रयोजन मात्र को ग्रहण करने वाला साधु, परवस्तु में सर्वथा निरीह होता है। तथा भोजनपान में और शरीर में गृद्धता को त्यागने वाला परिग्रह से दूर रहने वाला और शरीर तथा आत्मा के भेद को जानने वाला साधु पर-वस्तु में निरीह होता है।'
+31
" ग्रन्थकार पं. आशाधर ने पहले अचौर्यव्रत की भावना तत्वार्थ सूत्र के अनुसार कही थी । अन्य ग्रन्थों में अन्य प्रकार से पाँच भावनाएं बतलायी है। आचार शास्त्र के प्रतिपादित मार्ग के अनुसार योग्य ज्ञानादि के उपकरणों की याचना करना पहली भावना है। और उसके स्वामी की अनुज्ञा से ग्रहण करना दूसरी भावना है। गोचरी के समय गृहस्वामी के द्वारा अनुज्ञा न मिलने पर उसके घर में प्रवेश न करना तीसरी भावना है। स्वामी की अनुज्ञा से गृहीत योग्य वस्तु में भी आसक्ति न होना चतुर्थ भावना है। स्वामी के द्वारा दिय जाने पर भी प्रयोजनमात्र ग्रहण करना पाँचवी भावना है 82
(1)
प्रश्नव्याकरण सूत्र (श्वे. ) के अनुसार पाँच भावनाएँ इसी प्रकार की हैं विविक्तवास (2) अनुज्ञात संस्तार ग्रहण ( 3 ) शय्या परिकर्मवर्जन (4) अनुज्ञात भक्तादि भोजन ( 5 ) साधर्मिको में विनय अर्थात् सभी वस्तुएं उसके स्वामियों की और गुरु आदि की अनुज्ञापूर्वक ही ग्राह्य है ।
-