________________
मूलगुण
40
कारणभूत दोषों से दूषित हो जाएगा। अध्ययन या शंका समाधान आदि धार्मिक कार्य के लिए आर्यिकाएं या स्त्रियाँ, यदि श्रमण संघ के पास आये तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करे, कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है ।41
107
श्रमणों के लिए आर्यिकाओं की वसतिका में भी ठहरने का निषेध पद-पद पर मिलता है । इस सम्बन्ध में कहा गया है कि श्रमण को क्षणमात्र की क्रियाएं भी वहाँ नहीं करनी चाहिए, अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षाग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियाएं भी न करें 42 ।
1
इस उद्धरण से "महिलाओं के हाथ से आहार ग्रहण का निषेध" भी विचारणीय हो जाता है। हो सकता है कि इस पर विचार इस तरह से किया जा सकता है कि पुरुष की मौजूदगी में, ही आहार ग्रहण करे, यद्यपि कुछ पौराणिक घटनाएं इसके अपवाद स्वरूप भी मिलती हैं। परन्तु यह सम्भवतः राजमार्ग न हो, क्योंकि "वृद्ध, तपस्वी बहुश्रुत और जनमान्य श्रमण भी आर्याजन से संपर्क रखता है, तो वह लोकापवाद का भागी बन जाता है, फिर तो जो श्रमण युवा है, बहुश्रुतज्ञ भी नहीं है, और उत्कृष्ट तपस्वी तथा चारित्रवान भी नहीं है, वे आर्याजन के संपर्क से लोकापवाद के भागी क्यों नहीं होंगे।' ,43
जिस श्रमणाचार में आर्यिका जैसी तपस्विनी जनों से भी संपर्क का निषेध किया गया हो, वहाँ बाला कन्या, तरूणी, वृद्धा, सुरूप, कुरूप सभी प्रकार के स्त्री वर्ग से संपर्क का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है। श्रमणाचार में आचार्य को अपने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आर्यिका से पाँच हाथ, उपाध्याय छह हाथ तथा साधु सात हाथ दूर रहता है। चूंकि संयम रूपी रत्न की सुरक्षा तो साधु को भी करनी है, अतः उसे दूर रहने का विधान है। ऐसी स्थिति में जबकि आर्यिका से भी दूर रहने का निर्देश हो, तो सामान्य महिला वर्ग से निकटता होना असम्भव सा है, वहाँ तो कई हाथों दूर रहना ही विवेक संगत लगता है, एक मात्र आहारचर्या की स्थिति को छोड़कर और तब महिला जनों से चरण स्पर्श कराने जैसी बात बनती ही नहीं है। जिसके जीवन में लौकिक सदाचार का भी सद्भाव न हो, उससे ऐसे व्यवहार की कल्पना सहज की जा सकती है । यदि काई महिला सात हाथ से नजदीक आकर चरण स्पर्श का प्रयत्न करती है, तो वे साधु ब्रह्मचर्यं महाव्रत पर उपसर्ग मानेंगे । अन्यथा मुनिव्रत से भ्रष्ट हैं ही । क्योंकि ऐसी वृत्ति स्त्री स्पर्श सुख की कोटि में आती है, और चूंकि स्त्री का रूप निरपेक्ष होता है, 44 अर्थात माता-बहिन, लूली, लंगड़ी आद किसी रूप में ही सही, अन्ततः वह स्त्री ही है, और कामान्ध उसमें कोई भेद नहीं करता है। अतः अकामी उनसे दूर ही रहता है ।
इस तरह साधु, मात्र आर्यिकाओं से ही दूर नहीं रहता, अपितु जिन-जिन प्रकरणों से वह परतन्त्र हो सकता है, उन सब से दूर रहने का उद्यम करता है। क्योंकि बाह्यवस्तु के